तस्वीर जिन्दगी के

Home | Manoj Bhawuk - Introduction | Bhawuk's Rachna Sansar Tasveer Jindagi Ke Collection of Gazals written by Manoj Bhawuk. This was the First Bhojpuri Book to be awarded by Bharatiya Bhasha Parishad. -------------------------------------------------------------------------------- Manoj Bhawuk gets Bhartiya Bhasha Parishad Award from Gulzar and girija devi.

Wednesday, January 17, 2007

हिया में जब धइल गइल तनी-तनी सा बात के

53

हिया में जब धइल गइल तनी-तनी सा बात के

असर बहुत-बहुत भइल तनी-तनी सा बात के


कहीं प फूल झर गइल कहीं प फूल खिल गइल

अलग-अलग असर भइल तनी-तनी सा बात के

जे जिन्दगी के हाल-चाल उम्र भर लिखत रहल

ऊ राज ना समझ सकल तनी-तनी सा बात के

ई मन बहुत मइल भइल तनी-तनी सा बात से

बेकार में ढोअल गइल तनी-तनी सा बात के

Home

हजारो गम में रहेले माई

47

हजारो गम में रहेले माई

तबो ना कुछुओ कहेले माई

हमार बबुआ फरे-फुलाये

इहे त मंतर पढेले माई

हमार कपडा, कलम आ कॉपी

सँइत-सँइत के धरेले माई

बनल रहे घर, बँटे ना आँगन

एही से सभकर सहेले माई

रहे सलामत चिराग घर के

इहे दुआ बस करेले माई

बढे उदासी हिया में जब-जब

बहुत-बहुत मन परेले माई

नजर के काँटा कहेलीं रउरा

जिगर के टुकडा कहेले माई

'मनोज' हमरा हिया में हरदम

खुदा के जइसन रहेले माई

Home

सबसे बड़का शाप गरीबी

60

सबसे बड़का शाप गरीबी

सबसे बड़का पाप गरीबी

डँसे उम्र भर, डेग-डेग पर

बन के करइत साँप गरीबी

हीत-मीत के दर्शन दुर्लभ

जब से लेलस छाप गरीबी

साधू के भी चोर बनावे

हरे पुन्य- प्रताप गरीबी

जन्म कर्ज में, मृत्यु कर्ज में

अइसन चँपलस चाँप गरीबी

सुन्दर, स्वस्थ,सपूत अमीरी

जर्जर बूढ़ा बाप गरीबी

जे अलाय बा ओकरा घर में

पहुँचे अपने आप गरीबी

सूप पटकला से ना भागी

रोग, दलिद्दर, पाप, गरीबी

ज्ञान भरल श्रम के लाठी से

भागी अपने आप गरीबी

Home

सबका हिया में धड़कत, जिनिगी के दुआ तूहीं

59

सबका हिया में धड़कत, जिनिगी के दुआ तूहीं
सबका हिया में तड़पत, मउवत के हवा तूहीं

सुख के भले ना होखऽ, दुख के त सखा तूहीं
सब ओर से थकला पर आपन त खुदा तूहीं

बाटे ई कहल मुश्किल, के गैर के आपन बा
मौसम के तरह बदलत, रिश्तन में सगा तूहीं

रस्ता के पता नइखे, मंजिल के पता नइखे
जाये के जहाँ बाटे, ओह घर के पता तूहीं

जिनिगी अउँजाइल बा, हर ओर धुआँ बाटे
एह घोर अन्हरिया में असरा के दिया तूहीं

तोहरा से छुपाईं का, तोहरा से बताईं का
जे रोग लगल बाटे, ओकर त दवा तूहीं

'भावुक' हो ई साँचे बा, जरले प कहे दुनिया
सुलगत ए दोपहरी में सावन के घटा तूहीं


Home

हादसा कुछ एह तरे के हो गइल

58


हादसा कुछ एह तरे के हो गइल

लोग दुश्मन अब घरे के हो गइल

रोप गइलें बीज बाबा बैर के

सात पुश्तन तक लड़े के हो गइल

अब गिलहरी ना रही एह गाँछ पर

वक्त पतइन के झरे के हो गइल

जब से लाठी गाँव के मुखिया बनल

साँढ़ के छुट्टा चरे के हो गइल

आँख में कुछ फिर उठल बा लालसा

आँख में कुछ फिर मरे के हो गइल

प्यार के अब जुर्म चाहे जे करे

नाम 'भावुक' के धरे के हो गइल

Home

हर कदम जीये-मरे के बा इहाँ

57

हर कदम जीये-मरे के बा इहाँ
साँस जबले बा लड़े के बा इहाँ

जिन्दगी जीये के मकसद खोज के
ख्वाब के मोती जड़े के बा इहाँ

स्वर्ग इहवें बा,नरक बाटे इहें
जे करे के बा, भरे के बा इहाँ

फूल में तक्षक के संशय हर घरी
अब त खुशबू से डरे के बा इहाँ

जिन्दगी तूफान में एगो दिया
टिमटिमाते ही जरे के बा इहाँ

सुख के मोती ,सीप के अब खोज मे
दुख के दरिया तय करे के बा इहाँ

जिन्दगी के साँच बस बाटे इहे
एक दिन सभका मरे के बा इहाँ

Home

हियरा में फूल बन के खिले कौनो-कौनो बात

56

हियरा में फूल बन के खिले कौनो-कौनो बात
हियरा में शूल बन के हले कौनो-कौनो बात

जज्बात पर यकीन कइल भी बा अब गुनाह
दिल में उतर के दिल के छले कौनो-कौनो बात

अचके में पैर राख में पड़ते पता चलल
बरिसन ले आग बन के जले कौनो-कौनो बात

रख देला मन के मोड़ के, जिनिगी सँवार के
तत्काल दिल में लागे भले कौनो-कौनो बात

अनुभव नया-नया मिले 'भावुक' हो रोज़-रोज़
पर गीत आ गजल में ढ़ले कौनो-कौनो बात


Home

लाख रोकीं निगाह चल जाता

55

लाख रोकीं निगाह चल जाता
का करीं मन मचल-मचल जाता


राह में बिछलहर बा, काई बा
गोड़ रह-रह फिसल-फिसल जाता


रूप के आँच मन के लागत हीं
साँस लहकत बा, तन पिघल जाता


के तरे गीत गाईं जिनिगी के
हर घड़ी लय बदल-बदल जाता


Home

अब त हर वक्त संग तहरे बा

54

अब त हर वक्त संग तहरे बा
दिल के कागज प रंग तहरे बा

जे तरे मन करे उड़ा लऽ तू
डोर तहरे , पतंग तहरे बा

तोहसे अलगा भला दहब कइसे
धार तहरे , तरंग तहरे बा

साँच पूछऽ त हमरा गजलन में
छाव तहरे बा, ढ़ंग तहरे बा


Home

बात तोहरा से बताईं त बताईं कइसे

52

बात तोहरा से बताईं त बताईं कइसे
बात तोहरा से छिपाईं त छिपाईं कइसे

बात कागज ले रहित तब त अउर बात रहित
बात दिल पर से मिटाईं त मिटाईं कइसे

अब हिया में बा चढ़त जात निराशा के जहर
आस के फूल खिलाईं त खिलाईं कइसे

आग बाहर के ना ,भीतर के हऽ ई, ए भाई
एह से अपना के बचाईं त बचाईं कइसे

बात गजले में कहत बानी हिया के अपना
का करीं, मन के मनाईं त मनाईं कइसे

Home

जुल्म के तूफान के रउरे कहीं, कबले सहीं

51

जुल्म के तूफान के रउरे कहीं, कबले सहीं
खुद ना काहें बन के तूफानी हवा उल्टे बहीं

भेद मन के मन में राखब कब ले अइसे जाँत के
आज खुल के बात कुछ रउरो कहीं, हमहूँ कहीं

का हरज बाटे कि ख्वाबे के हकीकत मान के
प्यार के दरियाव में कुछ देर खातिर हम दहीं

घर बसल अलगे-अलग, बाकिर का ना ई हो सके
रउरा दिल में हम रहीं आ हमरा में रउरा रहीं

छल-कपट आ पाप से जेकर भरल बा जिन्दगी
कुछ हुनर सीखे बदे तऽ पाँव हम ओकरो गहीं

जिन्दगी के साँच से महरूम बाटे जे गजल
ओह गजल के हम भला 'भावुक' गजल कइसे कहीं


Home

राह बाटे कठिन, मगर बाटे

50

राह बाटे कठिन, मगर बाटे
चाहे बाटे अगर , डगर बाटे

होखे खपरैल भा महल होखे
नेह बाटे तबे ऊ घर बाटे

तींत भा मीठ जे मिलल हक में
ऊ त भोगे के उम्र भर बाटे

साँच पूछीं त हमरा गीतन पर
आज ले, राउरे असर बाटे

आँख नइखे ई चार हो पावत
लाख 'भावुक' मिलत नजर बाटे



Home

जिन्दगी के ताल में सगरो फेंकाइल जाल बा

49

जिन्दगी के ताल में सगरो फेंकाइल जाल बा
का करो मन के मछरिया हर कदम पर काल बा

छीन के भागत कटोरा भीख के बा आदमी
देख लीं सरकार रउरा राज के का हाल बा

तीन-चौथाई गुजारत रोड पर बा जिन्दगी
तब कही पगले नू कवनो देश ई खुशहाल बा

ना करे के से करावे काम एह संसार में
का कहीं 'भावुक' हो अइसन पेट ई चंडाल बा


Home

जुल्म के सामने चुप रहल

48

जुल्म के सामने चुप रहल
ई त जियते-जियत बा मरल

साँच के साथ देवे बदे
खुद से अक्सर लड़े के पड़ल

पाँव में हमरा काँटा चुभल
दर्द उनका हिया में उठल

हमरे रोपल रहल जंग ई
हमरे कीमत भरे के पड़ल

भीखमंगा सड़क पर सुतल
जइसे बालू प मछरी पड़ल

जेके पत्थर में खोजत रहीं ऊ
त धड़कन में हमरा मिलल

अब त 'भावुक' हो तहरा बिना
दू कदम भी बा मुश्किल चलल

Home

कटा के सर जे आपन देश के इज्जत बचवले बा

46

कटा के सर जे आपन देश के इज्जत बचवले बा
नमन वो पूत के जे दूध के कर्जा सधवले बा

बेकारी, भूख आ एह डिग्रियन के लाश के बोझा
जवानी में ही केतना लोग के बूढ़ा बनवले बा

कहीं तू भूल मत जइहऽ शहर के रंग में हमके
चले का बेर घर से ई केहू किरिया खियवले बा

सँभल के तू तनी केहू से करिहऽ प्यार ए 'भावुक'
जरतुआ लोग इहँवों हाथ में पत्थर उठवले बा


Home

गजबे मुकद्दर हो गइल

45

गजबे मुकद्दर हो गइल
गड़ही समुन्दर हो गइल

साथी त टंगरी खींच के
हमरा बराबर हो गइल

घरही में सिक्सर तान के
बबुआ सिकन्दर हो गइल

राजा मदारी कब भइल?
जब लोग बानर हो गइल

'भावुक' कहाँ भावुक रहल
ईहो त पत्थर हो गइल


Home

Tuesday, January 16, 2007

परेशान रहला से का फायदा बा

44


परेशान रहला से का फायदा बा

जरूरत बा आफत से डटके लड़े के

सफर से ना घबरा के, खुद के सम्हारत

बा तूफाँ से टकरा के आगे बढ़े के


कदम-दर-कदम डेग आगे बढ़ावत

सफलता-विफलता के माथे चढ़ावत

दिवारन प गिर‍-गिर चढ़त चिउँटियन के

तरह हौसला रख के ऊपर चढ़े के


जे रूकल, जे जमकल, से गड़ही के पानी

ऊ केहू के कामे ना आई जवानी

नदी के तरह प्यास सभकर बुझावत

जरूरत बा पथ पर निरंतर बहे के

पते ना चले कब चुभल काँट कहवाँ

रखे के पड़ी कुछ नशा एह तरह के

अग र कामयाबी के चाहत बा 'भावुक'

अगर बा अमावस के पूनम करे के

Home

दुख-दरद या हँसी या खुशी,

43

दुख-दरद या हँसी या खुशी, जे भी दुनिया से हमरा मिलल
ऊहे दुनिया के सँउपत हईं, आज देके गजल के सकल

जब भी उमड़ल हिया के नदी, प्यार से, चोट से, घात से
बाढ़ के पानी भरिये गइल मन के चँवरा में बनके गजल

रात के कोख में बाटे दिन, दिन के भीतर छुपल बाटे रात
गम के भीतर खुशी बा अउर हर खुशी लोर में बा सनल

बात मानऽ ना मानऽ मगर कुछ ना कुछ बात बाटे तबे
पाँव में हमरा काँटा चुभल, दर्द तहरा हिया में उठल

हम त 'भावुक', गजल-गीत में, छंद के बंध में बंद हो
बात कहलीं बहुत कुछ मगर बा बहुत कुछ अभी अनकहल


Home

अनजान शहर बाटे, अनजान सफर बाटे

42

अनजान शहर बाटे, अनजान सफर बाटे

मजबूर मुसाफिर बा, चलहीं के डहर बाटे

हर मोड़ पे आके हम गुमराह भले भइनी

पर आस मरल नइखे, मंजिल प नजर बाटे

तब गैर रहे लूटत, अब आपने लूटत बा

एह देश में सदियन से, लूटे के लहर बाटे

मतलब के निकलते ही बर्ताव बदल जाता

फइलत बा फिजा में अब कइसन दो जहर बाटे

भाई के मुसीबत में, भाई ही सटत नइखे

एह खून के रिश्ता में, कइसन ई कसर बाटे

'भावुक' हो ई जिनिगी तऽ, पतझार के पतई हऽ

ई काल्ह रही कहँवाँ, केकरा ई खबर बाटे

Home

Saturday, January 13, 2007

शेर जाल में फँस जाला तऽ सियरो आँख देखावेला

39

शेर जाल में फँस जाला तऽ सियरो आँख देखावेला
बुरा वक्त जब आ जाला तऽ अन्हरो राह बतावेला

कबो-कबो होला अइसन जे छोटके कामे आवेला
देखीं ना, सागर, इनार में, इनरे प्यास बुझावेला

सूरज से ताकतवाला के बाटे दुनिया में , बाकिर
धुंध, कुहासा, बदरी, गरहन उनको ऊपर आवेला

कबो-कबो होला अइसन जे सोना उहँवे निकलेला
बदगुमान में लोग जहाँ पर लात मार के आवेला

पास रहेलऽ तब तऽ तहरा से होला रगड़ा-झगड़ा
दूर कहीं जालऽ तऽ काहे तहरे याद सतावेला

पटना से दिल्ली, दिल्ली से बंबे, बंबे से पूना'
भावुक' हो आउर कुछुवो ना, पइसे नाच नचावेला

Home

का बा तहरा-हमरा में

41.

का बा तहरा-हमरा में
जिनिगी प्रेम-ककहरा में

जीत-हार सब धोखा हऽ
कुछ नइखे एह झगड़ा में

धन-दौलत सब तू ले लऽ
माई हमरा बखरा में

चिन्हीं कइसे केहू के
सौ चेहरा इक चेहरा में

गाय कसाई के घर में
कुतिया ए॰ सी॰ कमरा में

हमरे खातिर पागल तू
अइसन का बा हमरा में

मत मारऽ कंकड़-पत्थर
हमरा मन के पोखरा में

'भावुक' के भी राखऽ तू
कतहूँ अपना हियरा में

Home

हमरा विश्वास बाटे कि हम एक दिन

40.

हमरा विश्वास बाटे कि हम एक दिन अपना सपना के साकार करबे करब
लाख घेरो घटा आ कुहासा मगरबन के सूरज कबो त निकलबे करब

हर डगर बा नया, हर गली बा नया,लोग अनजान बा, हर शहर बा नया
हौसला बा अउर, पास में बा जिगरजहवाँ जाये के बाटे, पहुँचबे करब

पेट से सीख के केहू ना आवे कुछ,एगो अपवाद अभिमन्यु के छोड़ दीं
सीखते-सीखते लोग सीखे इहाँ,ठान लीं जो सीखे के तऽ सीखबे करब

पहिले मंजिल चुनीं सोच के दूर ले, राह फिर तय करीं योजना के तहत
लेके भगवान के नाम चलते रहीं, सोचते कि हम कर गुजरबे करब

बीच दरियाव में आके लौटे के का,पीछे मुड़-मुड़ के देखे के, सोचे के का
जे भइल से भइल, जे गइल से गइल पार उतरे के बा तऽ उतरबे करब

मौत मंदिर में, मस्जिद में, बाजार में,मौत संसद में, घर में आ बस-कार में
तब भला मौत से डर के काहें रुकींमौत आई तऽ कतहूँ त मरबे करब

ई अलग बात बा आज ले सीप में, हमरा हर बेर 'भावुक' हो बालू मिलल
पर इहे सोच के अभियो डूबल हईं ,एक दिन हम त मोती निकलबे करब

Home

तोहरे बा आसरा अब, तोहरे बा अब सहारा

38

तोहरे बा आसरा अब, तोहरे बा अब सहारा
कुछ रास्ता देखावऽ, कुछ तऽ करऽ इशारा

तोहरा के छोड़ के हम, केकरा के अब पुकारी
कुछ कर देखावऽ अइसन, हमरो मिले किनारा

तोहरा त सब पता बा, हमरा कहे के का बा
ओकरे से तू मिला दऽ, हमरा जे लागे प्यारा

पसरो ऊ हाथ कइसे, हरदम जे बा लुटवले
अतना जरूर दीहऽ, होखत रहे गुजारा

दुख के घड़ी में आपन, केहू कहाँ बा साथे
सब लोग तऽ भरल बा, रिश्तन के बा पसारा

उतरत-चढ़त रहेला मन आदमी के अइसे
जइसे चढ़े आ उतरे कवनो नली में पारा

एक दिन जरूर चमकी 'भावुक' गगन में, बाकिर
गरहन अभी बा लागल, गर्दिश में बा सितारा

Home

दिल में प्यारे के बीआ बोआ जब गइल

37.

दिल में प्यारे के बीआ बोआ जब गइल,प्रीत के तब फसल लहलहइबे करी
एह तरे जो मिलइहें नजर से नजर,लाज में तन में सिहरन समइबे करी

दिल के दुइयो घरी जे रखे कैद में,ऊ कहाँ बा कहीं जेलखाना बनल
दिल परिन्दा हऽ, लइका हऽ, भगवान हऽ,जवना अँगना में चाही, ऊ जइबे करी

फूल-कलियन के परदा में रख लीं भले,रउरा खुशबू के परदा में रख ना सकब
झूम के जब चली कवनो पागल हवा,भेद घर के ऊ रउरा बतइबे करी

लाश के ढेर पर जे बनत बाटे घर, ओके मंदिर कहीं, चाहे मस्जिद कहीं
देवता दू घरी ना ठहरिहें उहाँ,ऊ पिशाचन के डेरा कहइबे करी

के जरल, के मरल, के कटल, के धसल,कुछ पता ना चलल, मामला दब गइल
एगो साजिश के कबले कहब हादसा,चोर कहियो ना कहियो धरइबे करी

जुल्म 'भावुक' हो केतना ले केहू सही,खून के घूंट कहिया ले केहू पीही
फेरु लंका लहकबे-दहकबे करी,फेरु रावण मरइबे-जरइबे करी

Home

वक्त जीवन में अइसन ना आवे कबो

36.
वक्त जीवन में अइसन ना आवे कबो
बाप बेटा के अर्थी उठावे कबो

रोशनी आज ले भी ना पहुँचल जहाँ
केहू उहँवों त दियरी जरावे कबो

सब बनलके के किस्मत बनावे इहाँ
केहू बिगड़ल के किस्मत बनावे कबो

जे भी आइल सफर में दुखे दे गइल
केहू आइल ना हमके हँसावे कबो

हमरा हर कोशिका में समाइल बा जे
काश! हमरा के आपन बनावे कबो

सबका गोदी के 'भावुक' खेलवना बने
काश! बचपन के दिन लौट आवे कबो

Home

हिया हमार तार-तार हो गइल

35.

हिया हमार तार-तार हो गइल
बेकार में ही आँख चार हो गइल

नजर नजर के आर-पार हो गइल
त तेज शायरी के धार हो गइल

मना कइल गइल जे काम, मत करऽ
उहे त काम बार-बार हो गइल

हिया हिया से ए तरे मिलल कि अब
उहे हमार घर-दुआर हो गइल

तहार साथ छूटते ई का भइल
धुँआ-धुँआ उठल, अन्हार हो गइल

ऊ बेवफा कहीं ना चैन पा सके
जे चैन लूट के फरार हो गइल

Home

एह कदर आज बेरोजगारी भइल

34

एह कदर आज बेरोजगारी भइल
आदमी आदमी के सवारी भइल

पेट के आग से ई भइल हादसा
केहू डाकू त केहू भिखारी भइल

आग प्रतिशोध के कबले भीतर रहित
आज खंजर, ऊ भोथर कटारी भइल

बात बढ़ते-बढ़त बढ़ गइल एह तरे
एगो लुत्ती लहक के लुकारी भइल

रोजमर्रा के घटना बा, अब देश के
पार्लियामेण्ट में गारा-गारी भइल

एह सियासी मुखौटा के पीछे चलीं
इहवाँ चूहा से बिल्ली के यारी भइल

कौन मुश्किल बा सत्ता के गिरगिट बदे
छन लुटेरा, छने में पुजारी भइल

आम जनता बगइचा के चिरई नियन
जहँवाँ रखवार हीं बा शिकारी भइल

लोग मिल-मिल के ओझल भइल आँख से
जिन्दगी जइसे इक रेलगाड़ी भइल

नाम एके गो गूँजत बा मन-प्रान में
जब से 'भावुक' हो तहरा से यारी भइल के

Home

घाव पाकी त फुटबे करी

33

घाव पाकी त फुटबे करी
दर्द छाती में उठबे करी

बिख भरल बात लगबे करी
शूल आँतर में चुभबे करी

खीस कब ले रखी आँत में
एक दिन ऊ ढकचबे करी

जब शनिचरा कपारे चढ़ी
यार, पारा त चढ़बे करी

दोस्ती जहँवाँ बाटे उहाँ
कुछ शिकायत त रहबे करी

राह कहिये से देखत बा जे
ऊ त रह-रह चिहुकबे करी

बाटे नादान 'भावुक' अभी
राह में गिरबे-उठबे करी


Home

निश्छल, निर्मल, कल-कल, छल-छल,झरना जइसन मन दे दीं

32

निश्छल, निर्मल, कल-कल, छल-छल,झरना जइसन मन दे दीं
देबे के बाटे भगवन तऽ,फेरू ऊ बचपन दे दीं

हीरा-मोती, सोना-चानी,गाड़ी-बंगला ना चाहीं
बस एगो छत, छत के नीचे,खुला-खुला आँगन दे दीं

लिपटे भले भुजंग, अंग विष,व्यापे ना, हे राम कबो
अइसन अमृत जइसन मनआ चंदन जइसन तन दे दीं

दिल में उनका पत्थर बाटे,पत्थर में भी काई बा
अब ओह पत्थर के जगहा दिल,दिल में कुछ धड़कन दे दीं

लाल खून बा रोड प पसरल,नीला तन के भीतर बा
एह आलम में चक्र-सुदर्शनलेके अब दर्शन दे दीं

जे हमरा के समझ सके,हमरा के मन से अपनावे
अइसन केहू मिले त हम, ओकरा के दिल आपन दे दीं.


Home

काँट ही काँट बा जो डगर में

31


काँट ही काँट बा जो डगर में
फूल ही फूल राखीं नजर में

मन बना के ना देखीं उड़े के
जान अपने से आ जाई पर में

कुछ भरोसा त उनको प राखीं
जे बसल बाड़ें सबका जिगर में

देर होई मगर दिन ऊ आई
जब खुशी नाची आँगन में, घर में

हौसला, आस, विश्वास राखीं
होके निर्भय चलीं एह सफर में


Home

Friday, January 12, 2007

युवा-मन की प्रतिक्रिया में उभरती जिन्दगी की तस्वीर

भोजपुरी एक बहुत बडे़ एवं विस्तृत भारतीय समाज की भाषा है। यह जितनी बाहर की भाषा है, उससे कहीं अधिक भीतर की, घर की, घर-बार की। यही वजह है कि घर भोजपुरी कविता का अपना स्वाभाविक विषय ह।गोरख् पाण्डेय, प्रकाश उदय, अशोक द्विवेदी, जगदीश पंथी- सबकी कविताओं में यह घर' है। घर विविध रिश्ते-नातों से बनता है। भोजपुरी कविता में जब भी घर' की बात चली है, ये रिश्ते-नातें किसी-न-किसी रूप में उचरने लगते हैं।इन रिश्तों के उच्चार में देखा जाता है कि जितनी मिठास होती है, प्रायः उतनी खटाँस भी। भोजपुरी कविता इस मिठास और खटाँस की स्वाभाविक अभिव्यक्ति की कविता है। मिठास में तो मिठास होती ही है, खटाँस में भी प्रायः रिश्तों की गर्माहट और सक्रियता ही प्रकट होती है। मनोज भावुक' की गजलों में भी, अच्छी बात है यहघर' आता है, घर का आँगन आता है, रिश्तों के स्पष्ट उच्चार के साथ।ये रिश्ते अपने स्वाभाविक ठेठपन में इनकी गजलों में उचरते हैं और उल्लेखनीय है कि स्मृति-सम्पन्न एवं पीड़ाभरी प्रश्नाकुलता के साथ -

माई रे, अपना घर के ऊ आँगन कहाँ गइल।
भउजी हो, तोहरा गाँव के मधुवन कहाँ गइल।' (गजल सं 1)

यहाँ माई रे' और भउजी हो' को देखा जाना अनिवार्य है।इस रे' और हो' में भोजपुरिया जीवन शैली और रिश्तों की पारस्परिकता एवं पारम्परिकता की गंध सुरक्षित है। कवि यहाँ अपने अतीत-व्यतीत होते समय-संदर् की सक्रियता, मिठास, सझियाँव एवं खुलेपन को पाना चाहता है।यह माई रे' इसलिए इनकी गजल में है कि यह वह माई है जो अपने बेटे की खुशी में ही अपनी खुशी तलाशती है।उसी की नींद सोती और उसी की जाग जगती है।इनकी गजलों में व्यतीत होते समय की एक संवेदनशील शिनाख्त है। कवि इस बात को लेकर चिंतित, विह्वल और भावुक हो उठता है कि घर के जिस आँगन में उसका बचपन गुजरा है, वह आँगन अब गायब हो गया है।यहाँ गौर करने की जरूरत है कि कवि यह महसूस करता है कि कमरें तो हैं, लोगबाग भी हैं, जिंदगी की एक अपनी रफ्तार भी है, पर नहीं है तो वह आँगन-जिसमें तमाम कमरों के दरवाजे खुला करते थे और तमाम गतिविधियां उसी से होकर संचालित होती थीं।यह आँगन अब मिट गया है तो इसके भी कुछ कारण हैं।ऐसा नहीं कि इनकी गजलों में उन कारणों की परख-पड़ताल नहीं है। ये कारण अलग-अलग गजलों में अलग-अलग ढंग से परखे-पहचाने गये हैं।

मनोज की गजलों में सपने बुनता हुआ और सपनों के टूटने से आहत-आक्रोशित होता हुआ एक युवा-मन भी दिखाई देता है।यह मन दुखी भी होता है और अपने दुखों को अपने में ही नहीं रखता, बल्कि गा-गाकर बाँटता भी है और अपने दुखों को युवासुलभ दार्शनिकता का जामा भी पहनाता है।यहाँ कहना चाहूंगा कि सपनों और दुखों का इनका संसार इकहरा है और हद तक सपाट भी।युवा-मन का सतरंगा इन्द्रधनुष यहाँ सजने से पहले ही बिखर जाता है।संभव है कि कवि कोई खास बात कहना चाहता हो।वह प्रतिकूलताओं में फँसे युवा-मन की कसमसाहट को प्रकट करना चाहता हो।वह कहना चाहता हो कि एक स्वप्नशील-कल्पनाशील मन के लिए दायरों की कमी है।कवि के मन में, यह सच है कि ये सारे सवाल उथल-पुथल मचाये हुए हैं और वह स्वयं इसे महसूस करता है कि जो मन में शोर मचाये हुऐ हैं, वे अपने उसी वजन पर प्रकट नहीं हो पा रहे हैं।कवि अपनी बेचैनी और रचना-प्रक्रिया पर यहाँ टिप्पणी करते हुए बात स्पष्ट करता है-

जे राग मन में बाटे, सुर पर सधात नइखे
काहे दो बात मन के, यारे, कहात नइखे।' (गजल सं १२)

भारतीय जन-जीवन में व्याप्त निराशा भी इनकी गजलों का मुख्य विषय है।अशोकद्विवेदी, मिथिलेश गहमरी आदि की गजलों में भी यह निराशा आई हुई है। इस निराशा को अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य में भी देखा जा सकता है।लेकिन मनोज की गजल में गहरी निराशा के बावजूद उम्मीद का एक ऐसा दीया' भी है, जो अपनी लय में तो नहीं, पर जलता है, भुकभुकाते हुए ही सही। कवि कहता है कि यह मन का दीया' है। कवि मन की अपराजेयता को अपने ढंग से देखता है -

मन बहुत लरियाह ह, सोचे ना कवनो बात के
ई त बाते-बात पर बारे दिया उम्मीद के।' (गजल सं १८)


ई अलग बात बा आज ले सीप में, हमरा हर बेर भावुक' हो बालू मिलल
पर इहे सोच के अभियो डूबल हईं, एक दिन हम त मोती निकलबे करब' (गजल सं ४०)

भारतीय शासक वर्ग के अमन-विरोधी, जनविरोधी चरित्र की पड़ताल भी इनकी गजलों में है।

लाश के ढेर पर जे बनत बाटे घर, ओके मंदिर कहीं चाहे मस्जिद कहीं
देवता दू घरी ना ठहरिहें उहॉं, ऊ पिशाचन के डेरा कहइबे करी' (गजल सं ३७)

कवि यह महसूस करता है कि यहाँ जो मार-काट है, गरीबी है, बेरोजगारी है, लूट-खसोट है,उम्मीद का टूटना है, रिश्ते-नातों में घिसाव है, अपने ही परिवेश में परिचय-पहचान विहिन होते जाना है- इन सबों के लिए प्रथमतह्य सत्ता के केन्द्र में बैठे हुए लोग जिम्मेवार हैं।आम आदमी अब अपने को अकेला महसूस कर रहा है। गजल जो कोई आम आदमी के अकेलेपन की पीड़ा, स्थिति और अवसाद से सम्बन्ध बनाए, अकेल आदमी की बुदबुदाहट को सुने तो यह उसकी संवेदनशीलता का एक अहम पक्ष है। यहाँ यह देखने की बात है कि मनोज अपनी गजल को आम आदमी की झाँझर मड़इया' जो 'फूस' की है, में पूस की आती हुई धूप तक ले जाते हैं।पूस की धूप बहुत प्यारी होती है, लेकिन पूस की रात? इसको समझने के लिए प्रेमचन्द की कहानी पूस की रात' को पढ़ना अनिवार्य है। इस कष्टकर रात के दुखद अहसास को कवि ने विषय के रूप में नहीं अपनाया है, लेकिन यह अहसास इस गजल में आए बिना नहीं रहता। यह गरीबी का एक स्थिति-चित्र है - व्यंग्यात्मक-

ना रहित झाँझर मड़इया फूस के
घर में आइत धूप कइसे पूस के।' (गजल सं ३)

मनोज की गजलों में एक उल्लसित युवा-मन भी है सदिच्छाओं से भरा हुआ। आत्म-संवाद भी है। युवा-मन का विचलन, उसकी आशंकायें-आकांक्षायें एवं बेतरतीबियाँ भी कम नहीं हैं।कवि का वह मन भी है जो प्रेम करता है, कसमें खाता है, प्रतिज्ञा करता है, बहकता है, एक बात की बार-बार रट लगाता है। युवा सुलभ रोमान भी इनकी गजलों में शुमार है।

दरियाव उम्र के अब भावुक' उफान पर बा
हमरा से बान्ह एह पर बन्हले बन्हात नइखे'(गजल सं १२)

मनोज भावुक के गजल-संग्रह तस्वीर जिंदगी के' की गजलों में भारतीय समय, समाज, राजनीति एवं संस्कृति पर एक युवा-मन की प्रतिक्रियाए संकलित हैं। गजल के क्षेत्र में ये और नये-नये प्रयोगों के साथ आएँगे, पाठक समुदाय इस लिहाज से इनको निहार रहा है। ये गजल के सुर-ताल को नई ऊँचाई देंगे, ऐसा विश्वास बन रहा है।

____________________________________________________________________
तस्वीर जिन्दगी के (भोजपुरी ग़ज़ल-संग्रह), कवि -मनोज 'भावुक'
प्रथम संस्कारण २००४, प्रकाशक - भोजपुरी संस्थान, पटना,
मूल्य - साठ रूपया, कुल पृष्ठ ११०
____________________________________________________________________
डा. बलभद्र
प्रवक्ता, हिन्दी
बलदेव पीजी कालेज बड़ागाँव,
वाराणसी (उत्तर प्रदेश)
_____________________________________________________________________

Review of 'Tasvir Zindagi ke' by Binay Kumar Pandey

Book Reviewed : Tasveer Zindagi Ke by Manoj Bhawuk, Uganda.

I have just finished a Bhojpuri gazal collection "Tasveer Zindagi Ke" by Manoj Bhawuk. There are total of 60 gazals in this book, each one is mirror of emotions of modern young Indian trying to balance the rich tradition with modern but honourable social feelings. Every gazals paints such a picture of passion that reader finds his image out there. Very hummable & rythmic gazals forces readers to finish it in a single go. The young talented poet, Manoj Bhawuk is destined to have a very respected position among literary circle of Hindi-Bhojpuri bhasha. You can read all the gazals http://www.bhojpuri.org or at bhojpuri sansaar section of this site



Home

Review of ' Tasvir Zindagi ke' by Kamlesh Pandey

“ Bhawuk” literally means outright emotional. There is no dearth of emotions in his poetry. In fact, Bhawuk approaches the hard realities of life through the emotional route. Choosing Ghazal as the way of his expression of feelings is quite natural, as this form of Poetry is appreciated all over the Hindi-Urdu belt for its soft feelings, deep impact and romantic aura. Its format allows the poet to reflect his emotional and intellectual depth in just a couplet.

Ghazal in Bhojpuri language has its own charm. A language of the eastern part of India, bhojpuri is a sweet, lyrical sounding language with enormous tradition of folklore. Bhojpuri tunes and songs have always been an integral part of Indian cinema and performing arts and are tremendously popular all over India. The modern bhojpuri ghazal follows a strict poetical discipline and has given a new dimension to the bhojpuri geet(song) tradition. Manoj is a representative figure of the this new trend of modern Bhojpuri poetry, who has made the Bhojpuri literature proud by winning “Bharatiya Bhaasha Parishad”( Indian Languages council) award. This poet has achieved this distinction at a time when the literature of the language itself is struggling for survival due to onslaught of cheap and vulgar cinema and music-videos.

The title of the book “ Tasveer Zindgi ke”( Glimpses of life) speaks of itself. The portrait of life is brightly visible in the sixty ghazals. The content of the ghazals are simple, straight forward and largely indebted to the typical idioms of bhojpuri culture, yet having a distinct modern sensibility, which ic capable of expressing dilemmas of simple souls in these complex times. The ghazals of Bhawuk bear a thorough positive tone with a clear vision for a bright future for humanity. He talks about affection, brotherhood, enormous love for mother, his village and its surroundings and many social dogmas, A few couplets are also about dual faces of politics, while in some, he just puts before us some deep-rooted philosophy in very simple words:

“None could write the story of life..”

“The destiny of a person’s dream is that if it comes alive, it is life, but if dies remains a dream..”

And his undying optimism is reflected in these words-“… a lamp of hope fighting the blows of wind has been placed on the door-steps of heart..”

In one couplet, Manoj sides with a person who snatches food to fill-up his empty stomach. In another, he comments on the modern ways that a cow is sent to a butchers house, which a dog(bitch) lives in AC room. It is difficult to translate Bhawuk’s shairee in any language due to it’s peculiar Bhojpuri idiomatic styles. The essence of the subject goes waste in the process, as the undercurrents of these words are from a life which keeps oscillating between deep-rooted love for the native culture and traditions and a modern life adopted through migration. Still, the ghazal titled “mother” has that universal appeal where Bhawuk says that ‘Hiyaraa me khudaa ke jaisan rahele maaee” (my mother lives in my heart like God.) In this particular ghazal Bhwuk become completely bhawuk and goes down the memory lane to remember moments like mother organizing his cloths, pen, books and also that how she comes to his mind instantly when he is sad.

Manoj Bhawuk has ignited the hope that the neglected languages like Bhojpuri, with rich traditional flavors can be revived through using them for expression of modern sensibilities in the common and popular formats. The people who tend to refrain from speaking these languages/dialects can be attracted to this language only by writing such quality literature. This is also the only way to fight the tendency of making cheap stuff in native languages to gain market.


Home

आँख से कुछ कसर हो गइल

30

आँख से कुछ कसर हो गइल

उम्र के कुछ असर हो गइल

बात पर बात खुलिये गइल

आज सभका खबर हो गइल

आँख से जमके बारिश भइल

साफ दिल के डहर हो गइल

लोर पोंछत बा केहू कहाँ

गाँव अपनो शहर हो गइल

अब चलल राह मुश्किल भइल

लोभी सभके नजर हो गइल

तहरा पीछे सुरीला रहे

सामने मौन स्वर हो गइल

अब अकेले कहाँ बानी हम

जब गजल हमसफर हो गइल

Home

का करित जो इहो करित ना तऽ

29

का करित जो इहो करित ना तऽ
लूट के पेट ऊ भरित ना तऽ

फाट जाइत करेज कहिये ई
आँख से दर्द जो बहित ना तऽ

टूट जइतीं, बिखर-बिखर जइतीं
नेह भाई के जो मिलित ना तऽ

लोग कहिये उखाड़ के फेंकित
पेड़ जो आज ई फरित ना तऽ

ना कबो आ सकित नया मोजर
डाल से पात जो झरित ना तऽ


Home

या त परबत बने या त जन्नत बने

28

या त परबत बने या त जन्नत बने

जिन्दगी के इहे दूगो सूरत बने

ख्वाब कवनो तराशीं कबो, यार, हम

बात का बा जे तहरे ऊ मूरत बने

दिल के पिंजड़ा मे कैदी बनल ख्वाब के

का पता कब रिहाई के सूरत बने


मन के सब साध पूरा ना होखे कबो

सइ गो सपना में एगो हकीकत बने

सब गिला भूल के हाथ में हाथ लऽ

का पता कब आ केकर जरूरत बने

Home

बहुत नाच जिनिगी नचावत रहल

27


बहुत नाच जिनिगी नचावत रहल

हँसावत, खेलावत, रोआवत रहल

कहाँ खो गइल अब ऊ धुन प्यार के

जे हमरा के पागल बनावत रहल

बुरा वक्त मे ऊ बदलिये गइल

जे हमरा के आपन बतावत रहल

बन्हाइल कहाँ ऊ कबो छंद में

जे हमरा के हरदम लुभावत रहल

उहो आज खोजत बा रस्ता, हजूर

जे सभका के रस्ता देखावत रहल

जमीने प बा आदमी के वजूद

तबो मन परिन्दा उड़ावत रहल

कबो आज ले ना रुकल ई कदम

भले मोड़ पर मोड़ आवत रहल

लिखे में बहुत प्राण तड़पल तबो

गजल-गीत 'भावुक' सुनावत रहल

Home

अमन वतन के बनल रहे बस

26

अमन वतन के बनल रहे बस
हवा में थिरकन बनल रहे बस
इहे बा ख्वाहिश वतन के धरती
वतन के कन-कन बनल रहे बस

हजार गम भी सहे के दम बा
तोहार चाहत बनल रहे बस
बनल रहीं हम हिया में तहरा
हिया के धड़कन बनल रहे बस

रहे न केहू वतन में बेघर
रहे न केहू वतन में भूखा
सभे के रोटी, सभे के कपड़ा
सभे के जीवन बनल रहे बस

नजर में देखत पता लगा लीं
कि उनका मन के हिसाब का बा
इहे तमन्ना बा आखिरी बस
नजर के दरपन बनल रहे बस

हजार सपना सजा के मन में
निकल पड़ल बा सफर में 'भावुक'
सफर के मंजिल मिले, मिले ना
नयन में सावन बनल रहे बस


Home

अमन वतन के बनल रहे बस

26

अमन वतन के बनल रहे बस
हवा में थिरकन बनल रहे बस
इहे बा ख्वाहिश वतन के धरती
वतन के कन-कन बनल रहे बस

हजार गम भी सहे के दम बा
तोहार चाहत बनल रहे बस
बनल रहीं हम हिया में तहरा
हिया के धड़कन बनल रहे बस

रहे न केहू वतन में बेघर
रहे न केहू वतन में भूखा
सभे के रोटी, सभे के कपड़ा
सभे के जीवन बनल रहे बस

नजर में देखत पता लगा लीं
कि उनका मन के हिसाब का बा
इहे तमन्ना बा आखिरी बस
नजर के दरपन बनल रहे बस

हजार सपना सजा के मन में
निकल पड़ल बा सफर में 'भावुक'
सफर के मंजिल मिले, मिले ना
नयन में सावन बनल रहे बस


Home

काँट के साथ बा गुलाब, ए दोस्त

25

काँट के साथ बा गुलाब, ए दोस्त

जिन्दगी के इहे हिसाब, ए दोस्त

आज तक पढ़ सकल कहाँ केहू

जिन्दगी के कठिन किताब, ए दोस्त

हम त गुमराह होके रह गइलीं

रह गइल अब त ख्वाब ख्वाब, ए दोस्त

जिन्दगी के भइल रहे बीमा

होत बा लाश के हिसाब, ए दोस्त

प्यार के बीज कइसे अँकुरेला

के दी एह प्रश्न के जवाब, ए दोस्त

प्यार खातिर त सच्चा दिल चाहीं

अब उतारऽ तू ई नकाब, ए दोस्त


Home

हमरा चुप्पी के मतलब लगावल गइल

24

हमरा चुप्पी के मतलब लगावल गइल
हमके मगरूर बहुते बतावल गइल

ई लकम तऽ विरासत में बाटे मिलल
कबहूँ रोआँ ना हमसे गिरावल गइल

नइखे एहसास, जज्बात, धड़कन जहाँ
जख्म उहँवाँ अनेरे देखावल गइल

दर्द अल्फाज में ढल गइल, ओसे का
गीत पत्थर के काहें सुनावल गइल

जाने का-का दो मन में फुटत बा रहत
जब से शादी के चर्चा चलावल गइल



Home

हमरा सँगे अजीब करामात हो गइल

23

हमरा सँगे अजीब करामात हो गइल
सूरज खड़ा बा सामने आ रात हो गइल

एह मोड़ पर हमार ई हालात हो गइल
खुद जिन्दगी भी बाटे सवालात हो गइल

परिचय हमार पूछ रहल बा घरे के लोग
अइसन हमार हाय रे, औकात हो गइल

जमकल रहित करेज में कहिया ले ई भला
अच्छे भइल जे दर्द के बरसात हो गइल

'भावुक' हो! हमरा वास्ते बाटे बहुत कठिन
भीतर जहर उतार के सुकरात हो गइल



Home

आदमी जे सहज सरल बाटे

22

आदमी जे सहज सरल बाटे
खूब हमरा पसन परल बाटे

छोड़ दिहले हँसल ऊ अनका पर
जब से खुद पर नजर पड़ल बाटे

सुख के एहसास नइखे हो पावत
सुख के सामान सब भरल बाटे

दुख के दरियाव से बनल बदरी
आँख का राह से झरल बाटे

भर मुँहे बात जे कइल ना कबो
आज हमरा प ऊ ढरल बाटे

घाम बदनाम बा भले 'भावुक'
पाँव तऽ छाँव मे जरल बाटे


Home

बात पर बात जब मन परल होई

21

बात पर बात जब मन परल होई
लोर आँखिन से कतना झरल होई

दोष आँखे प काहे मढ़ाइल हऽ
कुछ कसर उम्र के भी रहल होई

लोग लूटे में लागल अनेरे बा
जब ऊ जाई त मुट्ठी खुलल होई

प्रान जाई मगर ना वचन जाई
कवनो जुग के चलन ई रहल होई

रात में के बा सिसकत सुनहटा में
जाल में कवनो मछरी फँसल होई

माथ पर साया बन के जे बदरी बा
घाम में खुद ऊ केतना जरल होई

आज कीचड़ में भलहीं सड़त बाटे
काल्ह उहे नू खिल के कमल होई

जब बसा लेलीं 'भावुक' के हियरा में
साथ उनके जिअल भा मुअल होई


Home

आखिर जुबां के बात कलम में समा गइल

20


आखिर जुबां के बात कलम में समा गइल
गजलो में हमरा जिन्दगी के रंग आ गइल

बरिसन से जे दबा के हिया में रहे रखल
अचके में आज बात ऊ कइसे कहा गइल

उनका से कवनो जान भा पहचान ना रहे
भइले मगर ऊ दूर त मन छटपटा गइल

एह जिन्दगी के राह के होई के हमसफर
सोचत में रात बात ई मन कसमसा गइल

अबले ना जिन्दगी से मुलाकात हो सकल
ऊ साथे-साथ जब कि बहुत दूर आ गइल

कइसे भुला सकी कबो ऊ मद भरल अदा
जवना निगाहे-नूर प 'भावुक' लुटा गइल


Home

होखे अगर जो हिम्मत कुछुओ पहाड़ नइखे

19

होखे अगर जो हिम्मत कुछुओ पहाड़ नइखे

मन में जो ठान लीं तऽ कहँवाँ बहार नइखे

ई ठीक बा कि नइया मँझधार में बा डोलत

बाकिर, कही ई कायर लउकत किनार नइखे

जिनिगी चले ना कबहूँ सहयोग के बिना

जब कइसे कहा ई जाला केहू हमार नइखे

कुछ लोग नीक बाटे तबहीं टिकल बा

धरती कइसे कहीं कि केहू पर एतबार नइखे

कबहूँ त भोर होई, कबहूँ छँटी कुहासा

'भावुक' ई मान लऽ तू आगे अन्हार नइखे

Home

मन के चउकठ पर धइल बाटे दिया उम्मीद के

18

मन के चउकठ पर धइल बाटे दिया उम्मीद के
भुकभुकाते बा बरत अबले दिया उम्मीद के

रोशनी के राह देखत रात पागल हो गइल
लफलफाते रह गइल, यारे, दिया उम्मीद के

सब उजाला खात बाटे बीच राहे में महलना
जरी लागत बा मड़ई के दिया उम्मीद के

लोग कइसे ओह जगह पर जी रहल बाटे, जहाँ
भोर के नइखे किरन, नइखे दिया उम्मीद के

मन बहुत लरियाह हऽ, सोचे ना कवनो बात के
ई त बाते-बात पर बारे दिया उम्मीद के

जिन्दगी के हर लड़ाई शान से लड़ते रहब
प्राण में जबले जरत बाटे दिया उम्मीद के



Home

जाईं तऽ जाईं हम कहाँ आगे

17

जाईं तऽ जाईं हम कहाँ आगे
दूर ले बा धुआँ-धुआँ आगे

रोज पीछा करीले हम, बाकिर
रोज बढ़ जाला आसमाँ आगे

के तरे चैन से रही केहू
हर कदम पर बा इम्तहाँ आगे

एक मुद्दत से चल रहल बानी
पाँव के तहरे बा निशाँ आगे

मन त बहुते भइल जे कह दीं
हम पर कहाँ खुल सकल जुबाँ आगे

टूट जाला अगर हिया 'भावुक'
कुछ ना लउके इहाँ-उहाँ आगे


Home

Wednesday, January 10, 2007

16

बात खुल के कहीं, भइल बा का ?
प्यार के रंग चढ़ गइल बा का ?

रंग चेहरा के बा उड़ल काहें ?
चोर मन के धरा गइल बा का ?

हम त हर घात के भुला गइलीं
रउरा मन में अभी मइल बा का ?

आईं अबहूँ रहे के मिल-जुल के
जिन्दगी में अउर धइल बा का



Home

गजल जिन्दगी के गवाए त देतीं

15

गजल जिन्दगी के गवाए त देतीं
दिया साधना के बराए त देतीं

कहाँ माँगतानी महल, सोना, चानी
टुटलकी पलनिया छवाए त देतीं

कहाँ साफ लउकत बा केहू के सूरत
तलइया के पानी थिराए त देतीं

बा जाये के सभका, त हम कइसे बाँचब
मगर का ह जिनिगी, बुझाए त देतीं

रही ना गरीबी, गरीबे मिटाइब
अरे, रउआ अबकी चुनाए त देतीं

लिखाई, तबे लूर आई लिखे के
मगर रउरा चिचरी पराए त देतीं

मचल आज 'भावुक' के दिल में बा हलचल
हिया में हिया के समाए त देतीं


Home

जिनिगी के जख्म, पीर, जमाना के घात बा

14

जिनिगी के जख्म, पीर, जमाना के घात बा
हमरा गजल में आज के दुनिया के बात बा

कउअन के काँव-काँव बगइचा में भर गइल
कोइल के कूक ना कबो कतहीं सुनात बा

अर्थी के साथ बाज रहल धुन बिआह के
अब एह अनेति पर केहू कहँवाँ सिहात बा

भूखे टटात आदमी का आँख के जबान
केहू से आज कहँवाँ, ए यारे, पढ़ात बा

संवेदना के लाश प कुर्सी के गोड़ बा
मालूम ना, ई लोग का कइसे सहात बा

'भावुक' ना बा हुनर कि लिखीं गीत आ गजल
का जाने कइसे बात हिया के लिखात बा


Home

जिन्दगी सवाल हऽ, जिन्दगी जवाब हऽ

13

जिन्दगी सवाल हऽ, जिन्दगी जवाब हऽ
जोड़ आ घटाव हऽ, साँस के हिसाब हऽ

धूप चल गइल त का, रूप ढल गइल त का
बूढ़ भइल आदमी अनुभवी किताब हऽ

रूपगर सभे लगे उम्र के उठान पर
रूपसी का आँख से जे चुए, शराब हऽ

देह बा मकान में, दृष्टि बा बगान में
होश में रहे कहाँ, मन त ई नवाब हऽ

आदमी के स्वप्न के खेल कुछ अजीब बा
जी गइल त जिन्दगी, मर गइल त ख्वाब हऽ

हीन मत बनल करऽ, दीन मत बनल करऽ
आदमी के जन्म तऽ खुद एगो किताब हऽ

दिल में तू धइल करऽ, दिल सदा 'मनोज' के
दूर से बबूर ई, पास से गुलाब हऽ

Home

जे राग मन में बाटे, सुर पर सधात नइखे

12

जे राग मन में बाटे, सुर पर सधात नइखे
काहें दो बात मन के, साथी, कहात नइखे

कहिये से जे बा बइठल, भीतर समा के हमरा
हहरत हिया के धड़कन ओकरे सुनात नइखे

बदलाव के उठल बा अइसन ना तेज आन्ही
कहवाँ ई गोड़ जाता, कुछुओ बुझात नइखे

दरियाव उम्र के अब 'भावुक' उफान पर बा
हमरा से बान्ह एह पर बन्हले बन्हात नइखे


Home

Saturday, January 06, 2007

हिया के पीर छलक के गजल में आइल बा

11

हिया के पीर छलक के गजल में आइल बा
तबे सुनत त नयन लोग के लोराइल बा

कबो-कबो ऊ अकेला में बुदबुदाताटे
बुझात बा कि बेचारा बहुत चुसाइल बा

देखाई आजले हमरा ना ऊ पड़ल कबहूँ
हिया में, साँस में, धड़कन में जे समाइल बा

कहा सकल ना कबो हाल दिल के तहरा से
मगर ई साँच बा, तहरे में दिल हेराइल बा

निकल के आईं कबो ख्वाब से हकीकत में
परान रउरे भरोसा प अब टँगाइल बा

शहर कहीं ना बने गाँव अपनो ए 'भावुक'
अँजोर देख के मड़ई बहुत डेराइल बा



Home

Friday, January 05, 2007

फूल हम आस के आँखिन में उगावत बानी

10

फूल हम आस के आँखिन में उगावत बानी
लोर से सींच के सपनन के जियावत बानी

प्रीत के रीत गजब रउआ निभावत बानी
घात मन में बा, मगर हाथ मिलावत बानी

रूप आ रंग के हम छंद में बान्हत-बान्हत
साँस पर साध के अब गीत कढ़ावत बानी

आजले दे ना सकल पेट के रोटी कविता
तबहूँ हम गीत-गजल रोज बनावत बानी

पेट में आग त सुनुगल बा रहत ए 'भावुक'
खुद के लवना के तरे रोज जरावत बानी


Home

रेशम के कीड़ा के तरे खुदहीं बनावत जाल बा

9


रेशम के कीड़ा के तरे खुदहीं बनावत जाल बा
ई आदमी अपने बदे काहें रचत जंजाल बा

पानी के बाहर मौत बा, पानी के भीतर जाल बा
लाचार मछरी का करो जब हर कदम पर काल बा़

झूठो के काहे आँख में केहू भरेला लालसा
काल्हो रहे बदहाल ऊ, आजो रहत बदहाल बा

कइसे रही, कहँवाँ रही, ई मन भला सुख-चैन से
बदले ना हालत तब दुखी, बदले तबो बेहाल बा

अइँठात बा मन्दिर के बाहर भीखमंगा भूख से
मंदिर के भीतर झाँक लीं, पंडा त मालेमाल बा

केहू के नइखे पूत तऽ, केहू के नइखे नोकरी
'भावुक' धरा पर आदमी हरदम रहल कंगाल बा


Home

मुहब्बत खेल हऽ अइसन कि हारो जीत लागेला

8

मुहब्बत खेल हऽ अइसन कि हारो जीत लागेला
भुला जाला सभे कुछ आदमी, जब प्रीत लागेला

अगर जो प्यार से मिल जा त माँड़ो-भात खा लीले
मगर जो भाव ना होखे, मिठाई तींत लागेला

पड़े जब डाँट बाबू के, छिपीं माई का कोरा में
अजी, ई बात बचपन के मधुर संगीत लागेला

कबो केहू ना आपन हो सकल मतलब का दुनिया में
डुबावत नाव ऊहे बा, जे आपन हीत लागेला

कहानी के तरे पूरा करीं, रउवे बताईं ना
बनाईं के तरे हम छत ढहे जब भीत लागेला

दुखो में ढूँढ़ लऽ ना राह 'भावुक' सुख से जीये के
दरद जब राग बन जाला त जिनिगी गीत लागेला

Home

कबहूँ लिखा सकल ना तहरीर जिन्दगी के

7

कबहूँ लिखा सकल ना तहरीर जिन्दगी के
कबहूँ पढ़ा सकल ना तकदीर जिन्दगी के

केहू निखोर देले बा घाव सब पुरनका
आवँक में आ रहल ना दुख - पीर जिन्दगी के

जब - जब भरेला छाती साथी के घात से
तब देला सकून आँखिन के नीर जिन्दगी के

गोदी से लेके डोली, डोली से लेके अर्थी
अतने में बा समूचा तस्वीर जिन्दगी के

तहरे बदे रहत बा पागल परान 'भावुक'
तूहीं हिया के थाती, जागीर जिन्दगी के


Home

अबकी दियरी के परब अइसे मनावल जाये

6

अबकी दियरी के परब अइसे मनावल जाये
मन के अँगना में एगो दीप जरावल जाये

रोशनी गाँव में, दिल्ली से ले आवल जाये
कैद सूरज के अब आजाद करावल जाये

हिन्दू, मुसलिम ना, ईसाई ना, सिक्ख ए भाई
अपना औलाद के इन्सान बनावल जाये

जेमें भगवान, खुदा, गॉड सभे साथ रहे
एह तरह के एगो देवास बनावल जाये

रोज दियरी बा कहीं, रोज कहीं भूखमरी
काश! दुनिया से विषमता के मिटावल जाये

सूप, चलनी के पटकला से भला का होई
श्रम के लाठी से दलिद्दर के भगावल जाये

लाख रस्ता हो कठिन, लाख दूर मंजिल हो
आस के फूल ही आँखिन में उगावल जाये

आम मउरल बा, जिया गंध से पागल बाटे
ए सखी, ए सखी 'भावुक' के बोलावल जाये


Home

दरिया के बीच बइठ के कागज के नाव में

5

दरिया के बीच बइठ के कागज के नाव में
का-का करत बा आदमी अपना बचाव में

कान्हा प अपना बोझ उठवलो के बावजूद
हरदम रहल देवाल छते का दबाव में

कहहीं के बाटे देश ई गाँवन के हऽ मगर
खोजलो प गाँव ना मिली अब कवनो भाव में

चेहरा पढ़े के लूर जो हमरा भइल रहित
अइतीं ना बाते- बात प अतना तनाव में

लागत बा ऊ मशीन के साथे भईल मशीन तब
हीं त, यार, आज ले लवटल ना गाँव में


Home

भँवर में डूबियो के आदमी उबर जाला

4

भँवर में डूबियो के आदमी उबर जाला
मरे के बा तऽ ऊ दरिया किनारे मर जाला

पता ई बा कि महल ना टिके कबो अइसन
तबो त रेत प बुनियाद लोग धर जाला

जमीर चीख के सौ बार रोके-टोकेला
तबो त मन ई बेहाया गुनाह कर जाला

बहुत बा लोग जे मरलो के बाद जीयत बा
बहुत बा लोग जे जियते में, यार, मर जाला

अगर जो दिल में लगन, चाह आ भरोसा बा
कसम से चाँद भी अँगना में तब उतर जाला


Home

ना रहित झाँझर मड़इया फूस के

3

ना रहित झाँझर मड़इया फूस के
घर में आइत घाम कइसे पूस के

के कइल चोरी, पता कइसे लगी
चोर जब भाई रही जासूस के

आज ऊ लँगड़ो दरोगा हो गइल
देख लीं, सरकार जादू घूस के

ख्वाब में भलही रहे एगो परी
सामने चेहरा रहे मनहूस के

जे भी बा, बाटे बनल बरगद इहाँ
पास के सब पेड़ के रस चूस के

तूहीं ना तऽ जिन्दगी में का रही
छोड़ के मत जा ए 'भावुक' रूस के


Home

देखलीं जे बइठि के दरिया किनारे

2

देखलीं जे बइठि के दरिया किनारे
डूबके देखला प लागल भिन्न, यारे

घर के कीमत का हवे, ऊहे बताई
जे रहत फुटपाथ पर लँगटे-उघारे

ना परे मन घर कबो बबुआ के भलहीं
रोज बुढ़िया भोर में कउवा उचारे

बस कहे के हम आ ऊ साथ रहीले
साथ का, जब पड़ गइल मन में दरारे

ख्वाब में भी हम कबो सोचले ना होखब
वक्त ले जाई कबो ओहू दुआरे



Home

बचपन के हमरा याद के दरपन कहाँ गइल

1

बचपन के हमरा याद के दरपन कहाँ गइल
माई रे, अपना घर के ऊ आँगन कहाँ गइल

खुशबू भरल सनेह के उपवन कहाँ गइल
भउजी हो, तहरा गाँव के मधुवन कहाँ गइल

खुलके मिले-जुले के लकम अब त ना रहल
विश्वास, नेह, प्रेम-भरल मन कहाँ गइल

हर बात पर जे रोज कहे दोस्त हम हईं
हमके डुबाके आज ऊ आपन कहाँ गइल

बरिसत रहे जे आँख से हमरा बदे कबो
आखिर ऊ इन्तजार के सावन कहाँ गइल


Home

चिचिरी के हाल : तस्वीर जिन्दगी के-- डाo रमाशंकर श्रीवास्तव

ग़ज़ल के जर-सोर खोजेवाला लोग कहेला कि ग़ज़ल शब्द के अरबी भाषा में मानी होला- औरतन के बातचीत. औरत लोग के बीच में जवन प्रेम-मुहब्बत, हँसी-ठठा में नरम-नरम बात होला,ओह के जब शेरो-शायरी में ढाल दीं त ग़ज़ल बन जाई. हो सकेला कुछ लोग के इ अनुभव साँचो के होखे. मगर हमार खयाल बा कि ग़ज़ल जइसन काव्य रचना अपना कोमल भाव, गहिर संवेदना आ श्रृंगारिक दृष्टि खातिर सभ जगह स्वागत योग्य बा. ग़ज़ल में रचनाकार के बौध्दिक तेजस्विता के दर्शन होला. आकार में छोटी चुकी लगलो के बाद अपना अर्थ आ आनन्द के विस्तार में ग़ज़ल बड़ी दूर-दूर तक पटकौरा मारेला.
ग़ज़ल उर्दू-फारसी से भले आइल होखे उ आपन लोकप्रियता के कारण आज प्राय: हर भाषा में जगह बना लेले बा. केतना घुसकत विधा भकुआ के खड़ा हो गइल बा आ पसर के बइठल ग़ज़ल मीठे-मीठे मुस्कुरात बा. ओकर रसदार सम्प्रेषणीयता सभ के ध्यान अपना ओर खींच रहल बा.

मनोज 'भावुक' के ग़ज़ल-लेखन के शुरुआत सन 2000 से भइल आ 2004 में उनकर पहिला ग़ज़ल -संग्रह 'तस्वीर जिन्दगी के' प्रकाशित भइल. एतना कम समय में भोजपुरी ग़ज़ल के एगो सुन्दर कृति देखे में आइल. पुस्तक के शुरु में प्रसिध्द साहित्यकार सत्यनारायण जी के सारगर्भित समीक्षा बा आ ओकरा बाद माहेश्वर तिवारी के 'माटी की गंध में लिपटी कविता' शीर्षक से विस्तृत समीक्षा बा. ग़ज़लकार अपना लेखन के श्रेय भोजपुरी के आचार्य पान्डेय कपिल आ कविवर जगन्नाथ के देके ओ दूनू विद्वान के प्रति समर्पण भाव व्यक्त कइले बाड़े.

समीक्षक लोग के पारखी निगाह में 'भावुक' एगो सफल रचनाकार बाड़े. खुदे मनोज 'भावुक' पुस्तक में आपन उदगार बीस पन्ना में व्यक्त कइले बाड़े.

एह आलेख में जीवन में आपन साहित्यिक झुकाव, परिवार- परिजन,अध्ययन काल के हित-मित,नाटक-लेखन-मंचन के दुनिया के सहयोगीगण, कुछ पत्र-पत्रिकन के संपादक लोग आ आपन साहित्यिक परिचय के कुछ विशिष्ठ लोगन के उ मनोयोग से इयाद कइले बाड़े. एह ग़ज़ल- संकलन मे कथा-रस के साथे संवेदना आ प्रेरणा के प्रसंग आ उ सब तत्व जवन 'भावुक' के निर्माण करे में सहायक बा, सभे के उल्लेख बा.

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी साँचे कहले बानी कि कविता रोटी, कपड़ा, मकान भले ना देव बाकिर उ बेहत्तर इंसान बनावे के काम करेले.

मनोज भावुक एही बेहत्तर इंसान के खोजे में आपन समय-श्रम लगवले बाड़े. कमे उमर में काम बड़के कइले बाड़े. बचपन के खेल में हम कवनो साथी के मुँह से सुंनले रहनी - ' छोटकी लुत्ती छटकल जाव,संउसे बनारस लूटत जाव.' 'भावुक' छोटे उमिर में लुत्ती बन के साहित्य जगत के बनारस के लूट लेले बाड़े. एकरा से साबित होत बा कि प्रतिभा के चमके के कवनो उमिर ना होला. चाही त उ दूधा के दाँते में चमक जाई, नाहीं त बतीसी टूटला पर बुढ़ौती में झलकी मारी भा ना मारी. 'मनोज' के अपना परिवार में कविता के दिसाई अपने पिता से प्रोत्साहन ना मिलल. भाई लोग के समर्थन मिलल आ विद्वान लोग के भी सहानुभूति, प्रशंसा मिलल.

एह से सत्यनारायण जी के विचार बा- 'अपना साठ गजलन में 'भावुक' काफी हद तक गजलियत के निर्वाह कइले बाड़े.

ओही लगले समीक्षक महेश्वर तिवारी भी एह ग़ज़लन में तीन गो खास बात खोजले बानी- भोजपुरी माटी के गंध. माटी के संस्कार के उद्वीप्त करना. भोजपुरी मानुख की संवेदना से लबालब.

मनोज भावुक के एह कृति पर जब एतना कहा गइल आ एतना टेस्टीमोनियल मिल गइल त अब आगे कहे खातिर बचते का बा. तबो मन नइखे मानत. काहे कि स्वादिष्ट खाना खा के ढेकार ना लीं त ओकरा पचे में कुछ शुबहा होला. 'तस्वीर जिन्दगी के' ग़ज़लन के बार-बार पढ़ के हम आनन्द उठवनी त अब अगर ओकरा के चुपेचाप गपच जाईं त इ इंसाफ ना कहाई. भावुक कई बेर बम्बई आ अफ्रिका से फोन पर हमरा से सवचले -सर हमार किताब पर कुछ लिखनी?

इ अनुभव लोकमुख में गूंजेला कि केतना लोग साठा पर पाठा होला.आ सांचो साठ गो ग़ज़ल पर भोजपुरी के एगो ग़ज़लकार पाठा बन के चर्चित हो जाव त इ भोजपुरी साहित्य के सौभाग्य कहल जाई. एह गजलन में आदमी के पूरा जिन्दगी के तस्वीर बा, भाव आ स्थिति के जवन घात-प्रतिघात बा ओ सब के गहिर संवेदना के साथे सहज ढंग से कहल गइल बा. अइसन काव्य रचना के समझे खातिर छन्दशास्त्र के ज्ञान के जरूरत नइखे. टहनी में टेढ़ो फूल खूशबूए देला. एह पंक्तियन के पढ़त समय बुद्धि के समझे से पहिले हृदय समझे लागत बा. इनार के भीतर जेतना गहिर डोर डालीं ओतने ठंडा पानी निकलेला. सेतहीं में बुद्धि के पहिले हियरा धड़के लागत बा काहे कि ओसे मनोवैज्ञानिक तार मजबूती से जुड़ल बा. विनम्रता में भावुक सकरले बाड़े कि इ सब चिचिरी पारत-पारत लिखा गइल बा. चिचिरी के जब अइसन हाल बा त जब अक्षर बना-बना के डांड़ी घीचिहें त का हाल होई. इ चिचिरिये कम नइखे. पढ़ी आ गुनीं त मन हलुका जाता. रियाजे करत-करत कुछ सूर सधा गइल बा.

पुस्तक में देश-दुनिया आ दिल के हाल अइसन नीमन से सझुरा के बन्हाइल बा कि जेने से चाहीं खोल के पढ़ लीं. बहुत काव्य रचनन में इ दोष होला कि उ अपना दुरूहता के कारण पाठक से दूर हो जाले. उ बात एमें नइखे. आज के जिन्दगी के एलबम में जेतना तस्वीर बा ओमें से बहुत त भावुके के किताब में सटल बा. प्रेम-स्नेह, माई के दुलार, घर-आँगन के प्यार, गुलाब में छिपल कांट, किसिम-किसिम के मुखौटा, हियरा में उपजत मीठ-मीठ बात, आ सबके ऊपर कवि के कथन - 'जिन्दगी के ताल में सगरो फेंकाइल जाल बा'.

सभे जानत बा कि झूठ जब उफर पड़ेला त सांच भउर के फोड़ के बहरिया जाला. अइसने सांच-सांच अनुभव के दर्शन होता एह गजलन में.

-शेर जाल में फंस जाला त सियरो आँख देखावला.' (पृ0 39)

-कबहूँ लिखा सकल ना तहरीर जिन्दगी के'- (पृ0 7 )

-अगर जो दिल में लगन,चाह आ भरोसा बा कसम से चाँद भी अंगना में तब उतर जाला.' (पृ0 10)

-एह सियासी मुखौटा के पीछे चलीं इहवां चूहा से बिल्ली के यारी भइल.(पृ0 34)

एकरा साथ ही भावुक आपन मजबूरी भी महसूस करत बाड़े -

'के तरे गीत गाईं जिनिगी के हर घड़ी लय बदल-बदल जाता.' (पृ0- 55)

'भावुक के भीतर एगो भयो समाइल बा कि कर्फ्यू लगावेवाली के अइला पर का होई. लंदन जात में उ उनकरे साथ गइले. फोन पर के बातचीत में इचिको ना बुझाइल कि उ डेराइल बाड़े. कवियो लोग अपना मेहरारू के कम बदनाम ना करेला.

आजकल के भोजपुरी ग़ज़ल में भी उर्दू-हिन्दी के ग़ज़ल-शिल्प के पूरा-पूरा निर्वाह हो रहल बा. उ सीधे दिल के भीतर ढुक के असर करत बा. कम शब्दन में रचना के गहरी बुनावट हो रहल बा.एही से एह विधा के पहुँच दूर-दूर तक बा. एगो प्रसिद्ध ग़ज़लकार - डा0 जानकी प्रसाद शर्मा के पंक्ति ह - 'कल मुझे बाजार मे हमशक्ल -सा चेहरा मिला, हाल मेरा पूछ्कर बेसाख्ता रोने लगा.'
कई जगह त अइसन लागत बा कि मनोज भावुक आ दोसर-दोसर ग़ज़लकार में गजब के वैचारिक एकरूपता बा.

हिन्दी के ग़जलकार योगेन्द्र दत्त शर्मा के ग़ज़ल -

'जिन्दगी के इस सफर में आए कैसे मरहले,बघनखे हाथों में लेकर लोग मिलते हें गले.'

भावुक के रचना एकरा से केतना मिलत-जुलत बा -

'प्रीत के रीत ग़जब रउआ निभावत बानी घात मन में बा ,मगर हाथ मिलावत बानी.' (पृ0 10)

'तस्वीर जिन्दगी के' में अउर भी तस्वीर के गुंजाइश बा. आदमी के जिन्दगी केतना-केतना भाव रसरी से बन्हाइल आ ओही में अझुराइल बा. इ संतोष के बात बा कि मनोज भावुक अझुराइल के सझुरावे में आपन साहित्यिक प्रतिभा के इस्तेमाल कइले बाड़े. बाकिर पग-पग पर बदलत दुनिया के रूप के अंकन उनकरा अउरी करे के पड़ी आ एही से उम्मीद बंधत बा कि उ आपन अगिला किताब में अउर भी ढेर बात आ अनुभव जोड़ के भोजपुरी साहित्य के भंडार भरिहें. भोजपुरी सिनेमा के इतिहास लेखन में भी उनकर योगदान बा. विदेश में रहिके भी उ दू चीज आज तकले ना भूल पवले. आपन माई आ भोजपुरी. इ कवनो छोट बात नइखे. आपन संस्कृति आ आपन भाषा ही उनकरा के सृजन-शक्ति दे रहल बा. भविष्य में भी अइसने उमंग-उत्साह बनल रहो. एही शुभकामना के साथ.

- रमाशंकर श्रीवास्तव

तस्वीर जिन्दगी के- मनोज भावुक ,

प्रथम संस्करण 2004,
प्रकाशक -भोजपुरी संस्थान,पटना,
मूल्य-साठ रूपया, कुल पृष्ठ- 110

पूर्वांकुर, अप्रैल-जून 2006 ( संपादक डाo रमाशंकर श्रीवास्तव ) से साभार

गजलकार के उद्गार

भूमिका बान्हे हमरा ना आवे. भूमिका आ उहो अपना पुस्तक के, यानी कि आत्मवक्तव्य लिखे के जरूरत भी हम महसूस ना कइनी. गजल या कविता त खुदे अपना-आप में एगो आत्मवक्तव्य होला. निजी तकलीफ होला. उहे तकलीफ अगर एगो समष्ठि भा समुदाय से मैच करे त सार्वजनिक तकलीफ हो जाला. सबकर दुख. अइसन तकलीफ जवना से करेजा फाटे लागे, फूट के गजल बन जाला. बाकिर अपना आन्तरिक उथल-पुथल के सुर आ लय में बान्हे सबका त लूर आवे ना. ई कमाल त सिर्फ शायर के पास होला. शायर के पीड़ा गजल-गीत के आकार लेके सार्वजनिक हो जाला. बाकिर मूल रूप से त ऊ एगो आत्म वक्तव्य ही होला. एही से हम अलग से अलग से आत्म वक्तव्य या भूमिका लिखे के पक्ष में ना रहनी आ आज से साल भर पहिले आपन पुस्तक बगैर भूमिका के ही प्रकाशन खातिर पटना भेज देनी. बाकिर कुछ मित्र आ शुभचिन्तक लोग के जोर-जबरदस्ती के बाद भूमिका के रूप में अपना डायरी के एगो अध्याय खोल रहल बानी. आत्ममंथन आ आत्म सुख खातिर लिखाइल एह अध्याय में बहुत कुछ निहायत निजी बा, जवन अब सार्वजनिक हो रहल बा.

त लीं पढ़ीं, थोड़-बहुत जोड़-घटाव के बाद हमारा डायरी के एगो अध्याय -

भोजपुरी के साहित्यिक संसार में हमार भूमिका उहे रहल बा जवन घर के अंगना में सबसे छोट लइका के. जाहिर बा हमरा भरपूर प्यार-दुलार मिलल होई. एगो लमहर सूची बा... केकर-केकर नाम गिनाईं. आरा बक्सर से शुरू हो के पटना होत छपरा, सिवान, बेतिया, चंपारन आ फेर बलिया, वाराणसी होत रेणुकूट. रेणुकूट से दिल्ली आ दिल्ली से मुंबई - एगो लम्बा सफर. साहित्यिक मंच से ले के रंगमंच, रेडियो, दूरदर्शन, फिल्म, कॉलेज-कोचिंग, गुरु-शिष्य आ इंडस्ट्रियल फिल्ड के तमाम मित्र. चिट्ठी-पत्री, फोन, मेल... प्यार-दुलार, आशीर्वाद, प्रोत्साहन, मार्गदर्शन आ शुभकामना. हम बिना नाम लेले सब केहू के हृदय से आभार व्यक्त करत बानी... प्रणाम करत बानी आ धन्यवाद देत बानी.

अइसे तऽ भोजपुरी में हमरा लेखन के शुरुआत सन् ई. १९९७ में भइल आ हमार पहिला कविता 'माई' 'भोजपुरी सम्मेलन पत्रिका' के जून-९७ अंक में प्रकाशित भइल. तब लिखे में हा् काँपे, बाकिर लिखे के बड़ा चाव रहे. ....... आ सबसे बड़ बात रहे भोजपुरी के महान साधक आचार्य कपिल जी के प्यार-दुलार, मार्गदर्शन आ प्रोत्साहन. आज हम भोजपुरी साहित्य में जहाँ भी बानीं, ओकर श्रेय हमरा एह गुरु आ अभिभावक के जात बा.

ओह घरी लिखे के एगो नशा रहे. 'भोजपुरी के हलचल' नियमित कॉलम लिखीं. फिल्म आ रंगमंच पर विभिन्न अखबारन में हमार आलेख छपे. जब कवनो नया रचना (कविता, कहानी) करीं त बरमेश्वर भइया (श्री बरमेश्वर सिंह) आ द्विवेदी जी (श्री भगवती प्रसाद द्विवेदी) के कार्यालय में ओह लोग के तंग करे पँहुच जाईं. केहू उबियाव ना. लेखन के नया-नया हुनर सीखे के मिलल. जब पटना से दिल्ली गइनी त उहाँ भी ई सिलसिला जारी रहल. जब कबो समय मिले त हास्य-व्यंग्य के महान साहित्यकार डा.रमाशंकर श्रीवास्तव जी के तंग करे पंहुच जाईं. साहित्यिक मीटिंग होखे त अपना मित्र उमेशजी का साथे डा.प्रभुनाथ सिंह जी, पूर्व वित्त मंत्री, बिहार, के तंग करे पहुँच जाईं. तरह-तरह के उल्टा-पुल्टा सवाल. हमार जिज्ञासु मन हमरा के शान्त बइठर ना देलस. इहाँ भी, ऐह अफ्रीका में भी, इन्डस्ट्रियल फिल्ड में भी, हमार ई आदत बरकरार बा- 'तंग करने की मुझको आदत है, क्या करूँ बचपना नहीं जाता.' बाकिर ई आदत हमरा के बहुत कुछ देलस. हरेक पल कुछ-ना-कुछ सीखे आ करे के बेचैनी.

बाकिर सबसे अधिक हम जे केहू के तंग कइले होखब, त अपना गुरू छंदशास्त्री आ भोजपुरी के महान संत कविवर जगन्नाथ जी के. आज हम जवन 'जिन्दगी के तस्वीर' उरेहे के हिम्मत कइले बानी, सब उहें के आशिर्वाद के प्रतिफल बा.

हमरा इयाद बा हमार पहिला गजल 'जिनिगि के जख्म, पीर, जमाना के घात बा / हमरा गजल में आज के दुनिया के बात बा.' 'कविता' के अंक-५ में छपल. एकरा साथे एगो आउर गजल छपल रहे 'गजल जिन्गी के गवाए त देतीं'. इहवें से (सन् २००० से) हमरा गजल-लेखन के शुरुआत भइल. ई दूनो गजल अनायासे लिखा गइल - भाव में बह के. जबकि ओह समय हमरा ठीक से इहो ना मलूम रहे कि गीत आ गजल में का फर्क होला. ......संयोग देखीं, ओही समय पटना दूरदर्शन पर हमरा एगो कार्यक्रम मिलल जवना में भोजपुरी कविता पर हमरा आचार्य पाण्डेय कपिल जी के इंटरव्यू लेवे के रहे. एह इंटरव्यू खातिर हम विधिवत तैयारी कइनी.

बस तबे से गजल के क ख ग घ के पढ़ाई शुरू हो गइल. काफिया, रदीफ, बहर, छंद, अरकान, मक्ता, तखल्लुस आदि बुझाये लागल. कविवर जगन्नाथ जी के ठोक-ठेठाव जारी रहल, ..... ना खाली पटना-प्रवास के दौरान बल्कि पटना से दिल्ली आ दिल्ली से मुंबई अइला पर भी चिट्ठी के मार्फत हमार क्लास चालू रहल. बाकिर छंद के छोड़ा-बहुत ज्ञान हो गइला से केहू गजलगो थोड़े हो जाई. क ख ग घ से ककहरा तक पहुँचे में दू बरिस बीत गइल.

सन् ई.२००० के बाद जुलाई के बाद हमार ध्यान मुंबई के मायानगरी के तरफ कुछ बेसिये खींचा गइल रहे. कंपनी के काम से जब भी अवकाश मिले त हम कवनो-ना-कवनो फिल्मी शख्सियत के इन्टरव्यू लेवे मुंबई पहुँच जाईं. अपना शोध पुस्तक 'भोजपुरी सिनेमा के विकास यात्रा' खातिर भोजपुरी सिनेमा के सुपर स्टार सर्वश्री सुजीत कुमार, राकेश पाण्डेय, कुणाल सिंह, निर्माता - मोहन जी प्रसाद, विनय सिन्हा, हिन्दी सिनेमा के मशहूर अभिनेता सदाशिव अमरापुरकर, निर्माता - कांत कुमार, निहाल सिंह, आ 'तुम बिन' के निर्देशक अनुभव सिन्हा समेत दर्जनों फिल्मकार लोग से भेंट-मुलाकात कइनीं आ भोजपुरी सिनेमा के संदर्भ में बात-चीत कइनी. एही फिल्म-साक्षात्कार के दौरान सुजीत कुमार जी हिन्दी फीचर फिल्म 'एतबार' के शूटिग में सेट पर आवे के नेवता दे दिहनी.

[भोजपुरी सिनेमा के इतिहास, क्रमबद्ध विकास-यात्रा, लगभग दू सौ फिल्म के समीक्षा-पटकथा-गीत आ सुपरहिट फिल्मकार-कलाकार लोग के साक्षात्कार आदि से संबंधित हमार विस्तृत आलेख धारावाहिक रूप में संपादक श्री विनोद देव के पत्रिका 'महाभोजपुर' आ विश्व भोजपुरी सम्मेलन के पत्रिका 'भोजपुरिया संसार' में प्रकाशित हो चुकल बा.]

सन ई० २००३ के शुरुआत में हमरा जिनिगी में अचानक तीन गो रोमांचक मोड़ आइल. ७-८ जनवरी २००३ के एन.एस,ई. ग्राउन्ड, बाम्बे एक्जीविशन से्टर, गोरेगाँव, (पूर्व) के उपरी हॉल में हिन्दी फीचर फिल्म 'एतबार' के सेट पर सदी के महानायक अमिताभ बच्चन से एगो रोमांचक मुलाकात आ भोजपुरी सिनेमा के संदर्भ में बातचीत भइल, (जवन कि डा.रमाशंकर श्रीवास्तव संपादित पत्रिका 'पूर्वांकुर' में प्रकाशित भइल) आ साथ ही निर्देशक विक्रम भट्ट आ अभिनेता जान अब्राहिम से भी परिचय भइल. दरअसल ओह घरी हमरा स्टार लोग से मिले आ बातचीत करे के जुनून सवार रहे. एह से बरखा-बूनी, आन्ही-तूफान, घाम-शीतलहरी, भा मुंबई के लोकल ट्रेन के धक्कम-धुक्की कुछु ना बुझाय. साथ में हमार छोट भाई धर्मेन्द्र रहलें. ऊ पिछला एक साल से पार्श्वगायन खातिर स्ट्रगल करत रहलें, एह से उनका एह सब के आदत हो गइल रहे. उनका पर घाम-बेयार, बरखा-बूनी, आन्ही-तूफान सब बेअसर रहे. साथ ही उनका मुंबई के कोना-कोनी, गली-कूचा के अच्छा जानकारी हो गइल रहे. एह से हमरा कहीं पहुँचे में कवनो परेशानी ना होखे. अइसन बुझात रहे कि अगर ई स्ट्रगल एही तरह जारी रहल त अगिला दू तीन महीना में हम कहीं-ना-कहीं मायानगरी में सेट क जाएब. बाकिर किस्मत के तऽ कुछ आउर मंजूर रहे. हम हंसी-खेल में एगो अफ्रिकन कम्पनी खातिर इन्टरव्यू दे दीहनी आ हमार सेलेक्शन कंपाला, युगाण्डा के एगो नामी कम्पनी Rwenzori Beverage Co. Ltd. में Plant Engineer के पद पर हो गइल आ १६ फरवरी के एअर टिकट भी बुक हो गइल. यानि कि पहिला बेर विदेश प्रवास आ हवाई जहाज के सफर के तिथि तय हो गइल. दुविधा के बावजूद ई एगो रोमांचक मोड़ रहे. तीसरा रोमंचक बात - हवाई जहाज में उड़े के पहिलहीं हमार पाँख कुतर दीहल गइल यानि कि २५ जनवरी के हमार सगाई (छेंका) (engagement) हो गइल. तब सोचनी कि बबुआ भावुक! अब तहार पढ़ल-लिखल हो गइल. चलऽ अफ्रिका. मशीन के साथे मशीन हो जा. बस इहे सोच के एह दू-ढाई बरिस (सन ई० २०००‍-०२) में जवन कुछ लिखाइल-पढ़ाइल रहे, पटना पोस्ट क देनी - 'तस्वीर जिन्दगी के' के रूप में प्रकाशित करे खातिर. जबकि कविवर जगन्नाथ जी के साफ हिदायत रहे कि 'गजल के सड़े दऽ. जवन गजल जतने सड़ी, ओह में ओतने गहराई आई. ....२०-२५ बरिस के सतत साधना के बाद एगो नीमन, पोढ़, ठोस आ बुलंद संग्रह प्रकाशित हो पावेला.'

बाकिर हम अधीर. दुइये-ढाई बरिस में बेचैन हो गइनीं. जाहिर बा संग्रह में खूबी कम, खामी जादा होई. फिर भी पहिलौंठि के लइका बड़ा प्यारा होला. हम जवन कुछ भी लिखले बानी, दिल से लिखले बानी. सुनले बानी जे दिल से जवन लिखाला उहे कविता हऽ, उहे गीत हऽ, आ उहे गजल हऽ.

हमरा गजलन के अगर दू हिस्सा में बाँट दिहल जाय त एक हिस्सा के सृजन पटना में भइल बा त दूसरा महाड़ (महाराष्ट्र) में. पटना में हमार रंगमंचीय मित्रमंडली (बिहार आर्ट थियेटर, कालिदास रंगालय, पटना) खास क के हमार प्रिय मित्र विजय पाण्डेय, दीपक कुमार (अब गीत एवं नाट्य प्रभाग, नई दिल्ली के आर्टिस्ट), पंकज त्रिपाठी (अब राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली के छात्र), मंडल, राजीव पाण्डेय, राजीव रंजन श्रीवास्तव, रीना रानी, अंजलि, प्रीति, सोमा, नेहा आ अर्चना बड़ी चाव से हमार गीत-गजल सुने लोग. कई बार त हमरा स्टूडेन्ट लोग (सिंह-भावुक कोचिंग, पटना) के भी हमरा कविताई के शिकार बने के पड़ल बा. गणित के शिक्षक प्रदीप नाथ सिंह के साथ अक्सर देर रात ले बइठकी होखे, जबकि सहायक शिक्षक सुनील मिश्रा हमरा गजलन के कट्टर आलोचक रहलें. बॉटनी के अध्यापक कौशल किशोर देखा-देखी कविता लिखल शुरू कईलें त हमरा बुझा गइल कि कविता-लेखन एगो छुतहा बीमारी भी हऽ. कार्बनिक रसायन के मास्टर नंद कुमार झा (अब पटना मेडिकल कालेज से एम.बी.बी.एस.) आ जन्तु विज्ञान के शिक्षक राजेश कुमार उर्फ दीपू (अब फैशन डिजाइनर) हमरा श्रृंगार रस के कवितन के कंठस्थ क लेले रहे लोग.

फिजिक्स सेन्टर के हमार कोचिंग मेट सुषमा श्रीवास्तव रेडियो आ दूरदर्शन से प्रसारित हमरा हरेक रचनन के कैसेट में रिकार्ड कइले रहली, जवन पटना छोड़े के पहिले हमरा के भेंट क के एगो अद्भुत सरप्राइज दिहली.

हमार बड़का मामा हिन्दी के वरिष्ठ निबंधकार-कथाकार प्रो. राजगृह सिंह (एकमा) जब भी पटना हमरा आवास पर आईं त कविता में प्रतीकन, रूपकन, आ मिथकन के इस्तेमाल पर जोर देबे के कहीं आ वर्तमान समय के विसंगति, विद्रुपता, आ सियासी पैंतराबाजी पर रचना करे के हिदायत दीं. ...आ छोटका मामा, भोजपुरी के कवि-गीतकार, श्री राजनाथ सिंह 'राकेश' आईं त साथे बईठ के रात-रात भर गीत-गजल के सस्वर पाठ होखे.

हमार कई गो गजल आकाशवाणी पटना से प्रसारित हो चुकल बा. एगो गजल 'जिनगी पहाड़ जइसन लागे कबो-कबो' त पटना दूरदर्शन से प्रसारित भोजपुरी धारावाहिक 'तहरे से घर बसाएब' में एगो जोगी पर फिल्मावल भी जा चुकल बा. 'साँची पिरितिया' के कार्यकारी निर्माता आ 'तहरे से घर बसाएब' के निर्माता-निर्देशक श्री राजेश कुमार जी के हम शु्क्रगुजार बानी कि उहाँ का हमार कहानी 'तहरे से घर बसाएब' आ गीत-गजल के पर्दा पर उतारे के पहल कइनीं. एही धारावाहिक से पटकथा आ गीत-लेखन के हमरा पहिला स्वाद मिलल.

हम लोकधुन आ लोकराग पर कईगो गीत लिखले रहीं. 'कइसे कहीं मन के बतिया हमार भउजी, नीन आवे नाहीं रतिया हमार भउजी' आ एगो आइटम गीत 'सुगना सुगनी बन के चले के उड़ान में, एही साल, एही साल, एही साल बबुआ ..... लेके डोली आइब, ले चलब सीवान में, एही साल, एही साल बबुनी ...' के बढ़िया फिल्मांकन भइल रहे. हमरा इयाद बा हाजीपुर में पायलट एपीसोड के शूटिंग के समय पीट-पीट के बरखा होत रहे. कमर भर पानी हेल के हम अपना रेजिडेन्स पाटलीपुत्रा कालोनी में पहुँचल रहीं. ओही समय बिहार इंस्टिट्यूट आँफ फिल्म एण्ड टेलीविजन (BIFT) के बैनर तले एगो आउरी भोजपुरी सीरियल बनत रहे 'जिनगी के राह'. ओकर टाइटल गीत 'औरत के जिनिगी के इहे बा कहानी, अँचरा में दूध बाटे, अँखिया में पानी' हमरे लिखल रहे. ओह सीरियल में हम वित्तरहित कॉलेज के एगो प्रोफेसर के भूमिका अदा कइले रहीं. सोमा जी (सोमा चक्रवर्ती) हमार मेहरारू रहली आ फिमेल लीड (केन्द्रीय भूमिका) में रीना रानी हमार भगिनी रहली. चुँकि हम वित्तरहित कालेज के प्रोफेसर रहीं, एह से हमरा कमाई से हमरा मेहरारू के होठलालियो के खर्चा ना मेन्टेन होखे. हमेशा हमार मेहरारू हमरा पर गभुआइल रहस. रूसल रहस. ... एही ढंग के एगो आउर किरदार जब हम हाईस्कूल में रहीं त हिन्दी नाटक 'नये मेहमान' में कइले रहीं. ओहमें हमार धर्मपत्नी रहली अनिता पांचाली. तब हमरा का मालूम रहे कि धर्मपत्नी के रूप में 'अनिता' नाम ही हमरा लिलार पर साटल बा. ..आ..आ ऊ (अनिता सिंह) हमरे स्कूल में हमरा पिछला क्लास में बइठ के हमार पीछा कर रहल बाड़ी.

खैर 'जिनगी के राह' के शूटिंग के बाद हम भाया दिल्ली मुंबई आ गइनी. फेर ओह सीरियल के पता ना का भइल. एगो चिट्ठी मीनाक्षी संजय जी के आइल रहे 'पटना दूरदर्शन के हालत खराब बा. अच्छा बाजार देख के सीरियल टेलीकास्ट होई.' ..... त कहे के मतलब कि ओह घरी से हमरा फिल्मी स्क्रिप्ट आ फिल्मी गीत लिखे के चस्का लागल. हालाँकि ओकरा पहिले भी पटना रंगमंच के चमकत अदाकार स्व. नूर फातिमा आ युवा निर्देशक श्री चन्द्रेश कुमार पाण्डेय हमरा से रंगमंच खातिर कइ बेर गीत लिखवा चुकल रहे लोग. भोजपुरी नाटक 'मास्टर गनेसी राम' खातिर हम चइता फगुआ आ बिदेसिया के धुन पर अउर कइगो गीत लिखले रहनी, जवना के दर्शक आ रंग-समीक्षक बहुत सराहना कइलें. वरिष्ठ रंगकर्मी श्री आर.पी.तरुण, श्री अजीत गांगुली, आ श्री अरुण कुमार भी हमरा नाट्य-लेखन आ नाट्य-गीत लेखन के प्रोत्साहित कइल लोग.

नाटक के बात चलल त मन परल. भोजपुरी नाटक आ रंगमंच के विकास यात्रा पर हमार विस्तृत आलेख भोजपुरी अकादमी पत्रिका , भोजपुरी निबंधमाला (भाग-४) (संपादक - नागेन्द्र प्रसाद सिंह), भोजपुरी सम्मेलन पत्रिका (संपादक - कपिल पाण्डेय), भोजपुरी लोक (संपादक - डा.राजेश्वरी शाण्डिल्य), विश्व भोजपुरी रंगमंच के पत्रिका 'विभोर' (संपादक - महेन्द्र प्रसाद सिंह), उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी के पत्रिका 'छायानट' के अलावा दैनिक आज, दैनिक हिन्दुस्तान, आ कई गो रंगसंस्थान के स्मारिका आदि में छप चुकल बा. नाटक, रंगमंच आ फिल्म पर विस्तृत निबंध लिखे खातिर हमरा के सबसे पहिले उकसावल आ प्रोत्साहित कइल हऽ भोजपुरी के वरिष्ठ निबंधकार-समालोचक श्री नागेन्द्र प्रसाद सिंह जी के. बाद में भोजपुरी सम्मेलन पत्रिका में भोजपुरी न्यूज 'भोजपुरी के हलचल' लिखे के प्रतिबद्धता देश के कोना-कोनी में मंचित भोजपुरी नाटकन के टोह लेबे खातिर विवश कइलस आ ओकरा बाद नाटककार महेन्द्र प्रसाद सिंह अपना पत्रिका 'विभोर' के सहायक संपादक बना के हमार जिम्मेदारी अउर बढ़ा देनी.

खैर.... अभी त बात चलत रहल हऽ गजल-गीत के, सुर-लय के. हमरा इयाद बा हम पटना से जब कबो अपना गाँवे कौसड़(सीवान) जाईं त ओने से सुर के कुछ सुरसुराहट लेके वापस लौटीं.

हमार बड़का बाबूजी (श्री जंगबहादुर सिंह) भैरवी आ रामायण के अपना समय के बेजोड़ गायक. हालाँकि शुरू में तऽ उहाँ के पहलवान रहनी, बाद में गायकी के शौक जागल. शौक भी अइसन कि एगो पैर आसनसोल, सेनरैले साइकिल फैक्टरी में रहे त दूसरा गाँवे. गीत-गवनई खातिर बार-बार उहाँ के गाँवे आ जाईं. नोकरी में मन ना लागे. बाद में आसनसोल के आस-पास के एरिया झरिया, धनबाद, बोकारो में महफिल जमे लागल. बाकिर ईहाँ के गायन प्रोफेशनल ना रहे आ ना ही ऊ कैसेटिया युग (कैसेट कंपनी के युग) रहे. एह से गायन से आमदनी के रूप में वाहवाही आ तालिये भर रहे. नोकरी-चाकरी से तेरहे-बाइस. बाद में परिवार के बोझ, जिम्मेवारी के एहसास आ पइसा के जरूरत उहाँ के गायन से दूर करत गइल. अइसे त भोजपुरिया समाज के अधिकांश प्रतिभा के सारांशतः इहे दास्तान बा कि ऊ रोजी-रोटी यानि कि नोकरी-चाकरी के बलि-बेदी पर अपना प्रतिभा या शौक के आहुति दे देले बाड़न. बाकिर बड़का बाबूजी के साथे एगो आउर मजबूरी रहे. गला आ आँख के तकलीफ के कारण डाक्टर के मनाही. ई सब कथा हम टुकड़ा-टुकड़ा में अपना बड़का बाबूजी स्व.दीप नारायण सिंह, चाचा स्व.रघुबीर सिंह आ गाँव-जवार के लोग के मुँहे सुनले बानीं. लोग के कहल सुनले बानी कि उहाँ के जब टाँसी लीं त माइक के आसपास के चार गाँव में आवाज गूँज उठे. खास क के भैरवी गायन में त समा बान्ह दीं. तब हम बहुत छोट रहीं. एहसे हमरा कुछ याद नइखे. बाकिर उम्र के एह ढलान पर भी उहाँ के आवाज आ राग-सुर-लय पर पकड़ देख के सहजे यकीन हो जाला. गाँव से पटना लौटला पर हम कई दिन ले उहाँ के गीत गुनगुनात रहीं आ ओह सुर, राग, लय में स्वतः नया-नया गजलन के जनम होत रहे.

रेणुकूट, कानपुर, पटना, दिल्ली आ मुंबई में जे भी हमार करीबी दोस्त आ रूममेट रहल ऊ हमेशा हमरा कवितन के आतंक में रहल, खास क के अनिल, परमात्मा, आदित्य, सुयश, विपिन, अमित, अजीत सिंह, आ हमार मौसेरा भाई संजय कुमार सिंह (इंजीनियर, पावर ग्रिड), आदि मित्र. गाँव जवार में त हम कमे रहल बानी, फिर भी कुछ हित-मीत आ गुरूजन-पुरूजन खास क के कर्मठ व्यक्तित्व के धनी शिक्षक श्री घनश्याम शुक्ल, (पंजुवार), प्रो, विक्रमा सिंह (पतेजी), श्री अखिलेश सिंह(राजपुर), आ सिसवन कालेज के प्राचार्य श्री जगदीश दूबे आदि के बधाई आ प्रोत्साहन मिलत रहल, जवन हमरा रचना के सृजन में सहायक भइल. एकरा अलावे भी बहुत शुभचिन्तक लोग के व्यंग्य-कटाक्ष आ आभी-गाभी मिलत रहल जवन हमरा रचनन खातिर कच्चा माल के काम कइलस. एह सब के सहयोग-असहयोग ना मिलल रहित त अब ले हमरा गजल-गायन पर कर्फ्यू लाग जाइत. अब पता ना कर्फ्यू लगावेवाली के अइला पर का होई?

सुनले बानी कि कवि लोग के अपना घर में कविता के ले के बड़ा ताना सुने के पड़ेला. खैर, हम त खुसकिस्मत बानी कि ताना देबे वाली के शुभागमन से पहिलहीं हमार एगो संग्रह पार घाट लाग गइल. अइसे बाबूजी के डाँट-डपट त सुनहीं के पड़ल बा. भाई लोग हमरा फेवर मे रहे. छोट भाई धर्मे्न्द्र (singer) हमरा कई गो गीत गजल के compose भी कइले बाड़न. बड़ भाई उमेश सिंह के हमार अधिकाश गजल कंठस्थ बा. एह पुस्तक के प्रकाशन में उनकर बहुत बड़ा हा्थ बा. हमरा प्रकाशित-

अप्रकाशित रचनन के अगर ऊ जोगा के ना रखितन त शायद एह संग्रह के प्रकाशन कठिन हो जाइत. हम त 'रमता जोगी बहता पानी' लेखा ईर घाट से मीर घाट... मीर घाट से तीर घाट.... बहत रहनी. पेड़ के डाल से टूटल पतई लेखा उधियात रहनीं. कहीं स्थिर ठौर ठिकाना ना भइल. हमार पता बदलला के मारे कुछ पत्र पत्रिका के संपादक लोग अकुता के चिट्ठी लिखल 'ए भाई, तू एगो स्थायी पता दऽ जवना पर हम लगातार पत्रिका भेजीं.' हम बड़ा फेर में पड़नी. जब हमहीं स्थायी नइखीं त स्थायी पता कहाँ से दीं? पत्रिका हमरा पढ़े के बा. हमरा बाबूजी के थोड़े पढ़े के बा. बाबूजी त हमार कवि-स्वरूप देख के अइसहीं अगिया जालें. दुनिया भर के पागल आ भीखमंगन के नाम गिना देलें. ...खैर स्थायी पता खातिर बेटा बाप के छोड़ के दोसर कहाँ जाई? हम अपना बाबूजी के पता दे दीहनी. काहे कि तब तक हमार बाबूजी रिटायर होके स्थायी हो गइल रहलें. हालांकि उनुका खातिर त स्थायी शब्द के प्रयोग बेइमानिये होई. ऊहो कबो स्थायी ना रहलें. कबो स्थिर ना रहलें. हमेशा भागदौड़.

जे.पी. आन्दोलन से शुरू भइल उनकर राजनैतिक जीवन उनका के हमेशा परिवार से दूर रखलस. लोहिया जी, राजनारायण जी, आ मंत्री श्री चन्द्रशेखर जी से नजदीकी के बाद दिल्ली से दौलताबाद ले मीटिंग, कान्फ्रेन्स आ भाषणबाजी में समय बीतल. दो टूक आ ठाँय-ठूक बतियावे वाला एह यंग एंग्रीमैन के राजनैतिक दाँवपेंच आ सियासी पैंतराबाजी रास ना आइल. बाद में बंगाल, बिहार, आ यू.पी. के कई गो कंपनी में मजदूर यूनियन खातिर संघर्षरत हो गइलें आ अंत में हिण्डाल्को मैनेजमेन्ट से एगो लंबा लड़ाई के बाद नौकरी खातिर तैयार भइलें. बाकिर का नौकरी ज्वायन कइला के बाद स्थायी हो गइलें? ... ना. इहाँ भी फलाना के कोर्ट कचहरी खातिर इलाहाबाद, त चिलाना के इन्टरव्यू खातिर लखनऊ, त ठेकाना के पेन्सन खातिर बनारस, त .... त... त... आ रिटायरमेन्ट के बाद त अउरी फुर्सत हो गइल बा एह सब काम खातिर. ताउम्र उनका कबो अपना घर के भीतर झाँके के फुर्सत ना भइल. आ ना हीं ऊ अपना घर खातिर कबो केहू के सामने हाथ फइलवले या झुकले.

जब ऊ रिटायर भइलें तब हम पोस्ट ग्रेजुएशन में रहीं. पहिला बार हमरा पढ़ाई में पइसा के अभाव महसूस भइल रहे. बाकिर हमरा पास आपन कोचि्ग इन्स्टीट्यूट रहे. ऐह से ओह अभाव में भी उनका ईमानदारी आ निस्वार्थ सेवा से हमरा कवनो शिकवा-शिकायत ना भइल. उनकर कर्मठ आ जुझारू व्यक्तित्व आ निश्च्छल, निष्कपट आ फक्कड़ी स्वभाव हमरा के बहुत बल देले बा.

पइसा आ भौतिक सुख-सुविधा के भूख हमरा कबो ना रहल...आ... ना आज बा. हँ प्यार के भूख जरूर रहल. हमरा याद नइखे कि हमार बाबूजी यानी कि समाजसेवक बाबू रामदेव सिंह जी अपना बेटा से कबो ई पूछले होखस कि ए बबुआ! एह घरी तोहार दशा-दिशा का बा? हम तरस के रह जाईं कि कबो ऊ हमरा पास बइठ के हमार हाल खबर लेस. खबर त ऊ लेबे करस, बाकिर कबो प्रेम से ना. उनकर क्रोधी स्वभाव उनकर बहुत अहित कइलस. हाँलाकि ई उनकर बाहरी स्वभाव हऽ, भीतर से हम उनका के बहुत साफ्ट महसूस कइले बानी. एकरा बावजूद भी हम कबो हिम्मत ना जुटा सकनी कि उनका पास बइठ के कवनो भी बिन्दु पर खुल के राय-मशविरा कर सकीं. बात-बात पर हजामत बने के डर रहे. तब??? ... सब सवाल-जवाब अपना मनवे से. मन जवन कहलस, कइनी. आ आज भी सबसे बड़का साथी उहे बा. उहे गिरावेला, उहे उठावेला, आ बीच-बीच में ठोकर मारेला. गिर-उठ आ ठोकर खात-खात जवन दूरी तय कइले बानी, ओह पर हमरा सन्तोष बा. एह से खुद से कवनो शिकवा-शिकायत नइखे. जवन एहसास आ अनुभव इकट्ठा भइल, ऊ गीत-गजल के शक्ल ले लेलस.

बचपने से हमार मन बहुत चंचल आ संवेदनशील रहल. स्कूल (हिण्डाल्को हायर सेकेन्डरी,रेणुकूट), कॉलेज (बी.एन.एस.डी. इन्टर कॉलेज, कानपुर), आ डिग्री कालेज (ए.एन.कॉलेज, पटना) में अध्ययन के दौरान दिल का साथे कुछ-ना-कुछ अइसन होत रहल जवना के याद सघन हो के काव्य रूप ले लिहलस. मन के साथ जुड़ल नेह-नाता से शृंगार रस के कई गो हिन्दी कविता 'कह नहीं पाता कि तुमसे प्यार करता हूँ',...'फिर कैसे याद नहीं आती',...'छात्र हूँ विज्ञान का',...'दर्द दिल का सहा नहीं जाता',...'तुमसे हो के जुदा',...'पत्थर के जिगर वालों',...'तुम्हें अपना बनाऊँगा',...'दीपों के जलते चिराग से',...'तन-मन-धन सब अर्पित तुझ पर' आदि के उत्पत्ति भइल, जवन कि बाद में आकाशवाणी पटना के युववाणी प्रभाग से प्रसारित भइल. एह कवितन के मुख्य स्रोत किंग जार्ज मेडिकल कालेज से एम.बी.बी.एस. करके अब कनाडा में डॉक्टर बन चुकल बाड़ी.

कॉलेज से रंगमंच आ दूरदर्शन में अइला पर ई बेमारी अउरी बढ़ गइल, बाकिर तब तक हमार झुकाव भोजपुरी लेखन का ओर हो गइल रहे. फलतः भोजपुरी के लव-स्टोरी 'कहानी के प्लाट', 'तेल नेहिया के', 'लड़ेले तऽ अँखिया, बथेला करेजवा काहे?', 'भउजी के गाँव', 'किस्मत के खेल' आ 'तहरे से घर बसाएब' जइसन कहानियन के जनम भइल.

हमरा प्रेम कहानियन पर डा.अशोक द्विवेदी जी के विशेष ध्यान रहल बा आ ऊहाँ के अपना पत्रिका 'पाती' में हमरा के खास जगह देले बानी. आभार व्यक्त करे के फार्मेल्टी हम ना करब. ऊहाँ के प्रति श्रद्धा बा आ रही.

स्कूल, कॉलेज आ रंग संस्थान के तरफ से कईगो महत्वपूर्ण टूर के मौका मिलल. हिण्डाल्को मैनेजमेन्ट वाद-विवाद प्रतियोगिता में हिस्सा लेबे खातिर पिलानी (राजस्थान), वाराणसी आ सारनाथ, एन.सी.सी.कैडेट का रूप में आगरा आ रंग संस्थान नाटकन के मंचन खातिर राजगीर, गया, हाजीपुर (बिहार), गोरखपुर (उत्तर प्रदेश) आदि कई महत्वपूर्ण स्थानन के टूर करे के अवसर मिलत रहल. एही टूर में यात्रा-वृतान्त का रूप में गद्य लिखे के आदत पड़ल. बाद में पद्य आ तुकबन्दी में ही आनन्द आवे लागल आ अब त बिल्कुल छंद-काव्य लय-काव्य यानि कि गजल.

हालाँकि तुकबंदी के आदत त प्राइमरी स्कूल (महिला मंडल आदर्श शिक्षा निकेतन, रेणुकूट) से ही लाग गइल रहे. जब हम पहिला बेर 'क्षमा बड़न को चाहिये, छोटन को उत्पात'(हिण्डाल्को आडिटोरियम में मंचित) नाटक में कवि मुखिया जी के रोल कइले रहीं. इकड़ी-दुकड़ी-तिकड़ी बम, करो काम ज्यादा, बोलो कम - हमार कविता रहे. बाद में जब रामलीला परिषद, रेणुकूट ज्वाइन कइनी आ रामलीला में विभिन्न किरदार निभावे लगनी तऽ रामचरित मानस के दोहा-चौपाई से बहुत प्रभावित भइनी. हायर सेकेण्डरी में भी नाटक के मंचन खातिर स्क्रिप्ट चुने के जिम्मेदारी हमरे के सँउपल जाय. हम लाइब्रेरी में किताबन के हींड़ के रख दीं. दर्जनो नाटक पढ़ला का बाद एगो फाइनल करीं. तब जाके मंचन होखे. तब लाइफ बहुत कलरहुल आ आनन्दमय रहे. बाकिर घाटा ई रहे कि तबे से अध्ययन (Study) से विचलन-कोण (angle of deviation)धीरे-धीरे बढ़े लागल रहे. एह दिसाईं हमार गुरुजी लोग हमेशा हमरा के समझावे. गुरु के प्रति हमेशा हमरा श्रद्धा रहल. चाहे ऊ स्लेट पर चॉक से ज्ञान के पहिला अक्षर अ अउर दू दूना चार के ज्ञानबोध करावेवाला गाँव के प्राइमरी स्कूल के पंडीजी होखीं या जीव-शास्त्र - हृदय, धमनी. शिरा, नाड़ी आ मस्तिष्क के जटिल से जटिल संरचना के भी बड़ी आसानी आ सरलता से मन मस्तिष्क में स्थापित कर देबेवाली हाई स्कूल के वरिष्ठ अध्यापिका श्रीमती कृष्णा सेठी या कानपुर के गणित प्राध्यापक श्री राजकुमार तिवारी, (जेकरा सानिध्य में हम आपन महत्वपूर्ण दू साल गुजरनी), या आइन्स्टीन के सिद्धान्त E=MC2 से भौतिकी आ दुनिया के बीच के संबंध के व्याख्यायित करे वाला पटना के फेमस भौतिकी प्राध्यापक कौल साहब (श्री ए.के.कौल) होखीं. ...सभे अकेला में हमार क्लास लेबे. हम एक कान से सुनीं आ दोसरा से निकाल दीं. गुरुजी लोद समझावे कि एके साथे कई गो नाव पर सवारी खतरनाकहोला. एकै साधे सब सधै. सेठी मैडम त रेणुकूट से कानपुर गइला के बाद भी चिट्ठी लिख-लिख के समझावस. बाकिर हम कुक्कुर के पूँछ. ....आ...ओह घरी त आउरी कुछ ना बुझाय. काहे कि तब तक कानपुर के मोतीझील हमरा के अपना ओर खींच लेले रहे. बाद में पटना के चिड़ियाघर (आ अब युगाण्डा के विक्टोरिया झील). हालाँकि पटना में आचार्य कपिल जी से परिचय के बाद उहाँ के हमरा अभिभावक के भी भूमिका अदा कइनी. पढ़े-लिखे खातिर बेर-बेर डाँट-डपट करीं. बेर-बेर समझाईं कि 'रंगमंच आ साहित्य से पेट ना भरी. पषाई के नजरअन्दाज क के कुछुओ कइल ठीक नइखे.' हमरा बाबूजी के हमेशा हमरा से शिकायत रहल. घर-परिवार आ हीत-नात का नजर में हम आवारा इलीमेन्ट हो गइल रहीं. हमार प्रतिभावान भाई आ मित्र श्री संजय कुमार सिंह (इंजीनियर, पावर ग्रिड) हमरा गतिविधियन से आजिज आ के पटना से लखनऊ भाग गइलें. हम जस के तस रह गइनी. बिल्कुल ठेंठ के ठेंठ... खाँटी के खाँटी. बाहर से भीतर ले बस एक जइसन. 'हमरा से ना हो सकल झूठ-मूठ के छाव, चेहरा पर हरदम रहल आंतर के ही भाव'. ..बिल्कुल नेचुरल. कवनो हवा-बेयार हमरा के ना बदल सकल. कवनो धार हमरा के अपना दिशा में दहवा ना सकल. हम हमेशा धार के खिलाफ बहत रहनी. कुछ लोग मगरूर कहल त कुछ लोग सनकी. तबो हमरा स्वभाव में कवनो परिवर्तन ना आइल. बाकिर इ स्वभाव बहुत महँगा पड़ल. बहुत कुछ टूट गइल ...बहुत कुछ छूट गइल. बाकिर का करीं?

जब आज ले ना सुधरनी त आगे उम्मीद कमे बा. अइसे हमरा अपना उपनाम के हिसाब से नरम होखे के चाहीं. ...तुरंते पिघल जाये के चाहीं. बाकिर नाम त नाम हऽ. नाम से का होला? एह उपनाम 'भावुक' के भी एगो अलगे कहानी बा. केहू प्यार से दीहल आ हम ले लीहनी. केहू के होंठ से फूटल .. हमरा करेजा मे सटल त आज ले सटले रह गइल. संक्षेप में कानपुर से नाम के साथ जुड़ल गिफ्टेड शब्द "भावुक" पटना में विस्तार लेलस आ महाराष्ट्र में भाऊ (भाई) हो गइल.

मन तऽ मने नू हऽ. जवन सट जाला तवन सट जाला. जवन लाग जाला तवन भीतर ले गहिर घाव क देला. हम का कहीं अपना मन के.

गुजरात के गरबा रास(डांडिया नृत्य) के तरह हमार मन भी कवनो एगो धुन पक्का ना कर सकल. हर घरी लय बदलत रहल. दिशा बदलत रहल. जहाँ आनन्द मिलल, मन ओने सरक गइल. मनबढ़ू हो गइल. मन सहक गइल. केहू कुछू समझावे, केतनो समझावे, मन ना माने. बस खूँटा त ओहीजी गड़ाई, जहाँ हमार मन करी. ...आ ....हमार मन. मन के तऽ शुरू से ताली सुने के आदत पड़ गइल रहे. स्कूल से(हिण्डाल्को स्कूल के) मच पर चढ़ के लम्बा‍-चौड़ा भाषणबाजी. शायदे कवनो अइसन कार्यक्रम होखे जवन हमरा भाषणबाजी के बगैर संपन्न होखे. ओकरा एवज में का मिले हमरा? ...पाँच-सात हजार स्टूडेन्ट के ताली आ ओकर गड़गड़ाहट. मन लहलहा जाय. ...ई नशा हऽ. ...शराब से भी ज्यादा खतरनाक. नशेड़ी जहाँ जाला नशा के अड्डा ढूंढ़ लेला. .....नशा के बहाना ढूंढ़ लेला. हम जहाँ भि गइनी भाषणबाजी के अड्डाढूंध लेनी. गाँवे गइनी त "कौसड़ के दर्पण"(गाँव के बायोग्राफी) लिखे लगनी. जबकि ओह समय सबसे ज्यादा जरूरत रहे ऋमार आपन बायोग्राफी सुधारे के. पटना घइनी त उहाँ आपन मित्रद्वय अजय अविनाश आ रामनिवास के साथे मिल के समाज सुधारक संघ गठित क लेनी, जबकि ओह घरी हमरे में एक लाख सुधार के गुंजाइश रहे. रोज नाराबाजी, झाडाबाजी, सड़क जाम, डी.एम. वगैरह के घेराव, त मंत्री के निवास पर हो-हल्ला, .....वगैरह-वगैरह. एह से मन ना भरल त रंगमंच ज्वायन कइनी. फेर साहित्य मंच, काव्य मंच वगैरह-वगैरह. हर जगह ताली-पर-ताली. तालियन के बौछार. बाकिर तब तक ई ना बुझाइल रहे कि ताली के भीतर भी गाली छुपल रहेला. लोग खाली रउरा सफलता पर ही ताली ना पीटे. रउरा असफलता पर भी ताली पीटेवालन के एगो लम्बा कतार होला.. ओह कतार के ओर मुड़ के तऽ हम कबो देखलहीं ना रहीं. रउरा कहीं फिसल जाईं, गिर जाईं, लुढ़क जाईं, ढिमिला जाईं त उहवाँ रउरा के संभाल के उठावे वाला भले केहू ना मिले, रउरा उपर थपरी बजावेवाला, ताली पीटेवाला जमात जरूरे मिल जाई.
बाबूजी के रिटायर भइला के बाद हमार आँख खुलल त हम पीछे मुड़ के देखनीं कि हमरा वर्तमान स्थिति पर थपरी पीटेवालन के एगो लंबा कतार बा. तब हम बिल्कुल बिखर गइल रहीं. ....हमार ऊर्जा कई गो क्षेत्र में बँट गइल रहे. ....मन बिखर जाये त ओकरा के समेटल बहुत मुश्किल काम होला.
स्कूलिंग के दौरान गणित हमार प्रिय विषय रहे, बाकिर इंडस्ट्रियल लाइफ से हमरा चिढ़ रहे. मशीनी काम-काज हमरा तनिको ना भावे. हम छोट रहीं तबे से हमरा घरे दमकल(पंपिंग सेट) बा. हमरा इयाद बा जब कबो दमकल बिगड़ जाये आ ओकरा के बनावे खातिर मिस्त्री बोलावल जाय त हम उहाँ से धीरे से टरक जाईं कि हमरा के कवनो काम मत अढ़ावल जाय. इहाँ तक कि जब घर के चाँपाकल बिगड़ जाय नया वाशर लगावे का डरे हम घर से बगइचा में भाग जाईं. लोहा लक्कड़ के कल-पूर्जा मे हमरा कवनो दिलचस्पी ना रहे... ....हँ, आदमी के कल-पूर्जा में दिलचस्पी जरूर रहे. हम गणीत छोड़ के बायोलॉजी चुननी, ....अपना जिद्द पर, बाबूजी के मर्जी के खिलाफ. सैकड़न डिग्री-डिप्लोमाधारी के नौकरी देबेवाला बाबूजी के हमरा से भी इंजीनियरिंग के उम्मीद रहे. पढ़े-लिखे में ठीक रहीं, एह से अइसन उम्मीद भी स्वाभाविक रहे. ...पर हम खूँटा त ओहिजा गड़ाई के सिद्धान्त पर कायम रहनी.

पटना आ के तितर-बितर हो गइनी. 'अर्जुन के मछली के आँख' वाली दृष्टि खतम हो गइल.कॉकरोच के आँख की दृष्टि पनपे लागल. एगो चीज के टुकड़ा-टुकड़ा में देखे भा एके साथे कई गो चीज पर दृष्टिपात करे के रोग लाग गइल. रेशम के कीड़ा के तरह अपने ऊपर जंजाल के जाल बुनाये लागल. एजुकेशन के दौरान ही रंगमंच, साहित्य आ काव्य मंच, समाज सुधारक संघ, रेडियो-दूरदर्शन आ अब एगो कोचिंग इंस्टीट्यूट के भी स्थापना हो गइल. सिंह-भावुक कोचिंग. पढ़ावे में परमानन्द आवे लागल. एह से बढ़िया भाषणबाजी के मंच दोसर होइये नइखे सकत. हम केमिस्ट्री आ फिजिक्स पढ़ावत-पढ़ावत जीवन-दर्शन, प्यार, रंगमंच आ साहित्य में उतर जाईं. केमिस्ट्री के अधिकांश फार्मूला के पोएट्री बन गइल रहे. ह,रा हरेक स्टूडेन्ट के आवर्त-सारणी के सारा तत्व आ इलेक्ट्रोकेमिकल सिरिज जुबानी याद रहत रहे. ई सब पोएट्री (कविता) के कमाल रहे. .....हमरा आउर का चाहीं. भोरे-भोरे भर पेट 'प्रणाम' मिले. हम ओही में गच्च रहीं.भावुक सर. ...भावुक सरके अनुगूँज से मन प्रफ्फुलित रहे लागल. स्टूडेन्ट के बूढ़ बाप जब अपना बेटा-बेटी के उज्जवल भविष्य खातिर सामने हाथ जोड़ के खड़ा हो जाय तब पूछहीं के का रहे. हमरा बुझाइल जे हम भविष्य-निर्माता हो गइनीं (जबकि हमरा खुद के भविष्य के कवनो ठीके ना रहे). चार साल के अध्यापन के दौरान हमार कई गो स्टूडेन्ट मेडिकल कम्पीट कइलें. (ऊ आज भी मेल भा फोन से कान्टेक्ट में बाड़न). हमरा ओही में आनन्द आवे लागल. उनके उज्जवल भविष्य देख के हमरा चेहरा पर चमक आवे लागल. अपना भविष्य के कवनो ख्याले ना रहे. हम अपना के सुबह से रात तक एतना ना व्यस्त क लेनी कि अपना बारे में सोचे के फुर्सते ना रहे..... ना होश. कोचिंग-कॉलेज-रंगमंच-साहित्य-शूटिंग दिनचर्या बन गइल रहे.

शुतुरमुर्ग के तरह आवेवाला खतरा से मुँह मोड़ के ओने पीठ क देले रहीं, हम. बाकिर का खतरा से मुँह मोड़ लेला से खतरा टल जाई ? खतरा आइल.... बाबूजी के रिटायरमेन्ट के बाद नौकरी के जरूरत महसूस भइल. संयोग अच्छा रहे कि तब तक हमार चयन सेन्ट्रल इंस्टीट्यूट आफ इंजिनयरिंग एण्ड टेक्नोलॉजी में हो गइल रहे. कोर्स कम्प्लीट भइला के बाद नौकरी के तलाश शुरू हो गइल.
जवना इंडस्ट्रियल लाइफ से चिढ़ रहे हमरा, ओही में इन्ट्री खातिर छटपटाहट शुरू हो गइल. एकरे के कहल जाला, वक्त के मार आ मजबूरी.

मजबूरी पटना से दिल्ली आ दिल्ली से मुंबई खींच ले आइल आ अब अफ्रीका.

पटना छोड़ल भी आसान ना रहे हमरा खातिर. दिल्ली के नौकरी कॉन्फर्म भइला का बाद भी दू महीना लाग गइल पटना छोड़े में. तब दू-दू गो धारावाहिक 'तहरे से घर बसाइब' आ 'जिनिगी के राह' के स्क्रिप्ट पर काम करत रहीं. कई गो सिरियल के शूटिंग बाकी रहे. अनिल मुखर्जी जयन्ती पर नाटक के मंचन करे के रहे. कोचिंग के कोर्स पूरा करावे के रहे. दिन-रात एक क के सब काम निपटइनी आ फेर आपन संत-आठ साल पुरान (सन् ई. १९९३-२००१) पटनहिया खोंता उजाड़ के चल देनी जीवन के नया अध्याय शुरू करे.

नया सबेरा के शुरुआत भइल दिल्ली में. हालाँकि दुइये-तीन महीना रहनी बाकिर उहाँ के कई गो प्रसंग हमरा बड़ा इयाद आवेला. डा.रमाशंकर श्रीवास्तव जी के देख-रेख में आयोजित महामूर्ख सम्मेलन आ जलपान में ठेकुआ आ कटहर के तरकारी के इयाद हर फगुआ में ताजा हो जाला.

दिल्ली के एगो आउर प्रसंग संस्मरण बन गइल बा. फगुआ के दिने रात के बारह बजे हमरा दाँया नाक से ब्लीडिंग शुरू भइल त रुके के नामे ना लेत रहे. हमार इंडस्टरियल मित्र सुनील राय (क्वालिटी कंट्रोल इंजिनियर) आ राजेश कुमार उर्फ दीपू (फैशन डिजाइनर) हमरा के लाद-लूद के कॉलरा हास्पीटल में डाल दीहल लोग. दू दिन में डाक्टर १५ हजार रुपिया चूस गइल बाकिर कुच लाभ ना मिलल.
बाद में डा.प्रभुनाथ सिंह जी हमरा के उमेशजी का साथे डा. राम मनोहर लोहिया अस्पताल भेज देनी. कुछ ना रहे. नाक के झिल्ली सूख के नखोरा गइल रहे.

अस्पताल से तालकटोरा वाला रेजिडेन्स पर वापस अइनीं तऽ डा. प्रभुनाथ सिंह जी पूछनीं - का हो उमेश, का कहलऽ सऽ डाक्टर. उमेश जी मजाक कइलन - कहलऽ सऽ कि नाक के हड्डी टेढ़ हो गइल बा. एह पर डा. प्रभुनाथ सिंह जी कहनीं कि ...ऐ भावुक. देखऽ ... नाक के हड्डी टेढ़ हो जाय, कवनो बात बइखे, ...नाक से खून बहे, कवनो बात नइखे, ...इहाँ तक कि नाक टूट जाय कवनो बात नइखे. बाकिर नाक कटे के ना चाहीं. इहे भोजपुरिया स्वभाव हऽ.

ई स्वभाव लेके हम अफ्रिका आ गइनी. एकरा के फार्मूला बना लेनी. 'हाथ में करिखा (मोबिल, आयल, ग्रीस) कवनो बात नइखे ... बाकिर मुँह मे करिखा ना लागे के चाहीँ.' केहू हमरा पर अंगुरी मत उठावे. ई सिद्धान्त जीवन-दर्शन बन के हरेक पग पर हमार मदद कर रहल बा. फलतः जवना इंडस्ट्री के नामे से हम थर-थर काँपी, उहाँ साँढ़ आ भँईसा से भी खतरनाक युगण्डन के ऊपर हाथ फेर के चुचकार-पुचकार रहल बानी आ कंपनी के दू-दू गो प्लान्ट के सिफ्ट इंचार्ज के भार अपना कमजोर कान्ह पर ढो रहल बानी. वक्त सब सिखा देला, ए भाई ...पेट सब पढ़ा देला.

देखीं...... 'बात पर बात' बढ़ल जा रहल बा. अभी एकर अवसर नइखे. का करीं. भाषणबाजी के आदत से लाचार बानी. जाये दीं, हम अपना वाचालता खातिर माफी मांगत फेरू वापस लौटत बानी गजल आ गजल-संग्रह के परिधि का भीतर आ आपन बात समेटत बानीं.

हँ तऽ गजल के दूसरा हिस्सा के सृजन महाड़ (महाराष्ट्र) में भइल बा. छत्रपति शिवाजी महाराज के जन्मस्थली रायगढ़ (महाड़) के प्राकृतिक सुन्दरता ...नदी, झील, झरनामन केबड़ा सकून देले बा आ हर घरी मन में कवनो-ना-कवनो धन गूँजत रहल बा. ...हमार भोजपुरिया मित्र आ रूम-मेट वेदप्रकाश यादव (इलेक्ट्रिकल इंजीनियर) हमरा के बहुत बर्दाश्त कइले बाड़न. हालाँकि बेर-बेर मुंबई जाये खातिर उहे उकसावस भी - 'घर में हाथ-प-हाथ ध के बइठला से कुछ ना होई, ए भावुक जी, ... कुछ पावे खातिर लड़े के पड़ेला.' उनका खोदला-खोदियवला से हमार मुंबई जाये के आवृति (frequency) बढ़ गइल. मुंबई में हम अपना तेज-तर्रार समाजसेवी मित्र डा. ओमप्रकाश दूबे (दूबे इस्टेट नालासोपारा के मालिक) के पास ठहरीं. दूबेजी से हमरा अनुजवत् स्नेह आ सहयोग मिले. बहुत कुछ हासिल भइल. छोट भाई धर्मेन्द्र मुंबई में पार्श्वगायन खातिर संघर्षरत रहलें. हमरा बुझाइल जे हमहूँ मुंबई सिफ्ट क जाएब. कई गो हिन्दी आ भोजपुरी के फि्ल्म में अभिनय करे आ गीत लिखे के आफर मिलल. बालाजी टेलीफिल्म्स के धारावाहिक 'कसौटी जिन्दगी की' में भी काम मिलल. बाकिर अफ्रीका के मोट पइसा आ पइसा के जरुरत अपना ओर खींच के सब काम चौपट क देलस. सब मेहनत डाँर गइल.

हम दुविधा में पड़ गइनीं. ओही समय पटना से दूगो पोस्टकार्ड आइल. नाटककार सुरेश काँटक जी लिकले रहीं - 'का कहले रहीं हम तोहरा के, उगता हुआ सूरज ... हमरा पूरा उम्मीद बा भाई कि तू मुंबई में भी आपन पैर जमा लेबऽ'. दूसरा चिट्ठी लोकगायक ब्रजकिशोर दूबे जी के रहे -'हमरा पूरा विश्वास बाकि तू पटना से दिल्ली, आ दिल्ली से मुंबईये ना, विदेशो जइबऽ'. एह दूनो चिट्ठी के बीच के अन्तर अब साचहूँ हमरा सामने एगो जटिल सवाल बन के खाड़ हो गइल रहे.

हम अफ्रीका चल अइनी. सब कुछ छोड़ के. साहित्य, रंगमंच, फिल्म, घर-परिवार, माई-बाप. अफ्रीका के एह जंगल में रास-रंग से भरल ऊ दिन टीस बनके कबो-कबो बहुत परेशान करे. अनायासे गीत के बोल कुलबुलाये लागे. एगो हिन्दी फीचर फिल्म खातिर आइटम गीत लिखले रहीं - 'सब आँखे चार करते हैं, मैं आँखे आठ करता हूँ. मैं चश्मेवाला हूँ, चश्मेवाली से प्यार करता हूँ', ई गिट पर्ल पॉलिमर्स लिमिटेड के हर स्टॉफ के जुबान पर रहे. हर पार्टी में गवाय. 'दिल से यूँ न भुला देना'...'जिनसे नजरें बचाते रहे हम' आ भोजपुरी गीत 'दिल के गली में अचके गुलजार हो गइल बा, मोहे प्यार हो गइल बा, तोहे प्यार हो गइल बा'. ...जइसन तमाम फिल्मी गीतन के रचना ओही मौसम आ मिजाज में भइल.

बाकिर भारत से युगाण्डा अइला पर सब कुछ ठप्प हो गइल. हम सांचहूँ मशीन के साथे मशीन हो गइनी. बाकिर एक दिन अचके internet पर search करत में हमरा Bhojpuri Website लउक गइल. बस हम फेर सक्रिय हो गइनी. हमार गीत-गजल website पर लउके लागल. हम धन्यवाद दीहल चाहब Bhojpuri Website के Moderator आ MECON Limited, Ranchi के Senior Structural Engineer श्री विनय कुमार पाण्डेय जी के, जे अतना महत्वपूर्ण आ जरूरी काम के अंजाम दीहलें. विश्व के मानस-पटल पर भोजपुरी के स्थापित करे उनकर प्रयास एक दिन जरूर रंग ले आई. साथ ही साथ हम Bihari Website के Administrator श्रीमती ज्योति अंजनी झा (जे कि Boston, USA में कार्यरत बाड़ी) के भी शुक्रगुजार बानी, जे हमरा के पसन्द कइली आ अपना साइट पर आमन्त्रित कइली. आज हमरा गीत-गजल पर USA, जर्मनी, जापान, मारीशस, फिजी, गुयाना, टोक्यो, सुरीनाम आ विश्व भर में फइलल भोजपुरियन के प्रतिक्रिया आ रहल बा.हम साँचहूँ में भाव विभोर बानी.

आज हमार कलम फेर सक्रिय हो उठल बा. हम फेर कुछ ना कुछ लिखे लागल बानी. अइसना में अपना गुरुद्वय आचार्य कपिल आ कविवर जगन्नाथ जी के बहुत याद आ रहल बा. 'कठिन से कठिन परिस्थिति में भी रचनाशीलता आपन राह ढूंढ़ लेले. एह से एह विषय में चिन्ता करे के जरूरत नइखे. तू अकेले नइखऽ. भगवान हमेशा साथे रहेलें. हमनी के आशीर्वाद तहरा साथे बा. तू जीवन के हरेक क्षेत्र में सफल होखबऽ.' एही आशीर्वचन से हमार विदाई भइल रहे इण्डिया से.

आज हम आपन गजल-संग्रह मन से आ सरधा से अपना एह गुरुद्वय के समर्पित कर रहल बानी. हमरा एह संग्रह के प्रकाशन के सारा श्रेय - श्रीगणेश से पूर्णाहुति तक के सारा श्रेय - भोजपुरी साहित्य के एही दूनो महान कवि के जात बा.

एह सब के बावजूद बहुत संकोच हो रहल बा. गजल जइसन छान्दिक अनुशासन के माँग करेवाली आ नजाकत से भरल विधा में डुबकी लगावल हमरा जइसन बेतैराक खातिर बड़ा कठिन काम बा. .....अपने सभे के पीठ ठोकला आ तारीफ कइला से उत्साहित होके हिम्मत कर रहल बानी. ...अउर ... आज आपन पहिला प्रयास अपने के सोझा रख रहल बानी, इहे सोच के कि एह दू-ढाई बरस के अध्ययन के बाद (सन् ई. २००० से २००२) 'तस्वीर जिन्दगी के' के रूप में एगो गजल के विद्यार्थी के परीक्षा हो रहल बा. रउरा सभे परीक्षक बानी आ हम परीक्षार्थी.

अब पास करीं भा फेल.

हमरा पास ना तऽ जिनिगी के पोढ़ अनुभव बा, ना दूरदर्शिता आ ना ही निर्तर अभ्यास के फुर्सत. बस चिचरी पारत-पारत कुछ लिखा गइल बा. रियाज करत-करत कुछ सुर सध गइल बा. बल्कि साँच कहीं तऽ जब-जब दुख-तकलीफ या हँसी-खुशी गुनगुनाहट के रास्ता से बाहर निकलल बा, त ऊ गीत बन गइल बा. हमार अधिकांश गजल अइसने असामान्य परिस्थिति के उपज हईं सन. एह उपज के एको गो शेर यदि रउरा मरम के छूवे, मन के उद्वेगे, आ साँस में गूँजे त हमरा रचनाकार के बहुत खुशी होई. बड़ा सकून मिली. खामी भी बताएब त नया दिशा मिली, एह से एकर भी स्वागत रही, इंतजार रही.
ओह खामी के दूर क के हम अउर बुलन्द-संग्रह देबे के प्रयास करब. आजकल पता ना काहे हमार मन पहिले से ज्यादा गुलाबी आ चटखार गजलन के रचना करे में सक्रिय हो गइल बा. पता ना, ई हमरा जर्मन फ्रेण्ड तन्या केप्के के लगातार आ रहल भाव-भरल मेल के प्रभाव हऽ, या कि विश्व के सबसे बड़ा मीठ पानी के झील (विक्टोरिया झील) में झिझरी खेलला के असर, या कि बिआह के डेट खातिर अंगुरी पर दिन गिनत साथी के इण्डिया से लगातार आ रहल प्रेम-पत्र के जादू, या कि साथ में कार्यरत मराठी मित्र आ रूम मेट सुनील आनन्दमाली के पियानो से निकलत तरह-तरह के धुन पर आपन सुर साधे के प्रयास. ..... उम्मीद बा अगिला संग्रह ज्यादा र्गीन आ जीवंत होई.

फिलहाल एह संग्रह के प्रकाशन में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जेकर भी सहयोग मिलल बा, हम सबका प्रति हार्दिक आभार पव्यक्त करत बानीं. खास क के भोजपुरी-हिन्दी के ओह पत्र-पत्रिकन के प्रति, आकाशवाणी, दूरदर्शन आ काव्य-मंच के प्रति जे हमरा के पाठक, श्रोता भा दर्शक से जोड़लस.
'कविता' के अंक-८ में खास कवि बना के आ सन् ई. २००३ में प्रकाशित गजल-संग्रह 'समय के राग' में भोजपुरी के स्वनामधन्य १६ गो गजलकार का साथे यानी कि सेव, संतरा, मोसम्मी आ आम, अंगूर, लीची से भरल बाग में एह रेड़ी के पेड़ के भी शामिल कर के कविवर जगन्नाथ जी हमार मन आ मान दूणो बढ़ा देले बानी. हमरा गजल के उछाले में 'कविता' के बाद 'भोजपुरी सम्मेलन पत्रिका'(पाण्डेय कपिल), पाती (डा.अशोक द्विवेदी), पनघट (जवाहर लाल 'बेकस'), महाभोजपुर (विनोद देव), भोजपुरिया संसार आ पूर्वांकुर (डा. रमाशंकर श्रीवास्तव), भोजपुरी लोक (डा. राजेश्वरी शाण्डिल्य), खोईंछा (डा. दिनेश प्रसाद शर्मा), रैन बसेरा (अहमदाबाद), आनन्द डाइजेस्ट आ दैनिक आज, पटना आदि के प्रमुख हाथ रहल बा. हम एह सब पत्र-पत्रिकन के फले-फूले आ मोटाये-गोटाये के कामना करत बानीं.

भोजपुरी के वरिष्ठ साहित्यकार प्रो. ब्रजकिशोर, डा. शंभुशरण, श्री बरमेश्वर सिंह, आचार्य ऽिश्वनाथ सिंह, डा. गजाधर सिंह, श्री कन्हैया प्रसाद सिंह, निर्भीक जी, पराग जी, श्री कृष्णानन्द कृष्ण, प्रो. हरिकिशोर पाण्डेय, दक्ष निरंजन शम्भु, कथाकार भास्कर जी, सत्यनारायण सिंह, कवियत्री सुभद्रा वीरेन्द्र, भगवती प्रसाद द्विवेदी, हास्य कवि विचित्र जी, पत्रकार - रविरंजन सिन्हा, राकेश प्रवीर, आलोक रंजन, संजय त्रिपाठी, प्रमोद कुमार सिंह, श्रीमती अंजीता सिन्हा, श्रीमती रूबी अरुण, संजय कुमार, आ युवा सहित्यकार भाई साकेत रंजन प्रवीर, जीतेन्द्र वर्मा, जयकांत सिंह 'जय' आ अंबदत्त हुंजन आदि विद्वान साहित्यकार से जफन स्नेह, सहयोग आ प्रोत्साहन मिलल बा,ओकर एगो अलगे महत्व बा.

हम बहुत-बुत आभारी बानी आदरणीय कविद्वय श्री सत्यनारायण जी आ श्री माहेश्वर तिवारी जी के, जे एह संग्रह के भूमिका लिख के एकर मान बढ़ा देले बा.

अब हमरा अपना गजलन के बारे में कुछ नइखे कहे के. अपना दही के खट्टा के कहेला? .....असली स्वाद त रउरा बताएब. हम त बस अतने निहोरा करब कि अपने खाली छाल्ही मत खाएब .....खँखोरी ले जाएब ....... तब असली स्वाद मिली.

हमरा बेसब्री से इन्तजार रही अपने सभे के स्वाद के, बेशकीमती टिप्पणी के, स्पष्ट प्रतिक्रिया के आ बेबाक समालोचना के.

बस, बहुत हो गइल. ......अब हम आपन बकबक अपना चंद शेर के साथ बंद कर रहल बानी -
हिन्दू मुस्लिम ना, ईसाई ना सिक्ख ए भाईअपना औलाद के इन्सान बनावल जाये
जेमें भगवान, खुदा, गॉड सभे साथ रहेएह तरह से एगो देवास बनावल जाये
लाख रस्ता हो कठिन, लाख मंजिल दूर होआस के फूल ही अँखियन में उगावल जाये
आम मउरल बा, जिया गंध से पागल बाटेए सखी, ए सखी, 'भावुक' के बोलावल जाय

- मनोज भावुक

१४ नवम्बर २००३कापाला, युगाण्डा(पूर्वी अफ्रिका)

माटी की गंध में लिपटी कविता-

उर्दू में गजल को शायरी का शऊर और आबरू कहा गया है. वहां गजल की पहचान ठीक वैसी ही है जैसी हिन्दी में गीत-कविता की. काव्यात्मकता के साथ उपस्थित संगीत इन काव्य रूपों का प्राण-तत्व है. जिस तरह हिन्दी गीत का उत्स वैदिक ऋचाऐँ हैं, उसी तरह उर्दू गजल का स्रोत फारसी कविता है. लेकिन यह स्थापना सर्वस्वीकृत नहीं है, कई विद्वानों का मत इससे सर्वथा भिन्न है और वे यह मानते हैं कि गजल मूलतः अरबी भाषा का काव्य-विधान है. उनके अनुसार गजल की उत्पत्ति आज से लगभग १४०० वर्ष पहले अरबी भाषा में हुई और उसके बाद फारसी में आई. लेकिन कुछ अन्य विद्वानों का मत है कि भारतीय भाषाओं में गजल सबसे पहले हिन्दी में आई और बाद में उर्दू में. उनका मानना है कि उर्दू का जन्म मुगल शासन काल में हुआ और अमीर खुसरो ने तेरहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और चौदहवीं सदी के पूर्वार्द्ध के बीच वाले काल खण्ड मे हिन्दी में गजलें लिखीं.
अरबी भाषा में गजल के उत्स को तलाशने वालों का मानना है कि अरबी भाषा में शायर जो तश्बीब लिखते रहे, वह गजल से मिलता-जुलता काव्य रूप है और कालान्तर में उसी से प्रेरित होकर फारसी में गजल-लेखन का आरम्भ हुआ. लेकिन फारसी भाषा में इस काव्य रूप का प्रस्थान-बिन्दु देखनेवालों का मानना है कि दसवीं शताब्दी में रौदकी नाम के एक फारसी कवि हुए, जिन्होंने गजल को अपनी शायरी का अंग बनाया. उनके अतिरिक्त फारसी के प्रमुख गजलकारों के रुप में वे लोग अमीर खुसरो, शेख सादी, फैजी तथा चन्द्रभान ब्राह्मण का नाम शामिल करते हैं. अब यह अलग बात है कि अमीर खुसरो को हिन्दी वाले अपना पितामह मानते हैं तथा उर्दू के लोग भी उन्हें बाबा-ए-उर्दू या बाबा-ए-गजल के रूप में तस्लीम करते हैं. बहरहाल, गजल का उत्स किस भाषा के साहित्य में है और उसके पहले शायर कौन हैं, यह अभी गेरे-बहस है लेकिन कविता का यह रूप धीरे धीरे इतना प्रभावी सिद्ध हुआ कि आज हिन्दी उर्दू के अतिरिक्त पंजाबी, गुजराती, और मराठी भाषा में प्रचुरता के साथ गजलें पढ़ी-लिखी जा रही हैं.
गजल का शाब्दिक अर्थ है माशूक से बातचीत या हुस्नो-इश्क का बखान. एक विद्वान कैस बिन राजी मानते हैं कि गजाला या हिरन को शिकारी द्वारा मार दिये जाने पर उसके वियोग में हिरनी के मुख से निकली हुई करुणापूर्ण आह या कराह भी गजल की केन्द्रीय संवेदना को व्यञ्जित करती है. इसका समर्थन स्व. रघुपति सहाय फिराक भी करते हैं. लेकिन सूक्ष्मता के साथ इस स्थापना का विश्लेषण किया जाय तो लगता है यह अवधारणा क्रौंञ्च-वध पर आदि कवि वाल्मीकि के कंठ से फूटे अनुष्टुप से अनुप्रेरित है. गजल के स्वरूप का विश्लेषण करते हुये उर्दू के एक अन्य विद्वान डा. माजदा हसन का मानना है - "साहित्य और समाज में गजल का वही स्थान है जो किसी भरे-पूरे घर में एक अलबेली सुन्दरी का होता है. उसके चाहने वालों में बड़े-बूढ़े, औरत-मर्द, सूफी, योग्य और अयोग्य, ज्ञानी और अज्ञानी सभी होते हैं. कुछ उसके अल्हड़पन के दिलदार हैं तो कुछ उसकी शोखियों पर मरते हैं."
हिन्दी गजल के इतिहास की छानबीन करने वालों को इसकी पहली झलक कबीर में मिलती है और स्थापना की पुष्टि में वे निम्नलिखित पंक्तियों को प्रस्तुत करते हैं -

हमन हैं इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या
रहे आजाद दुनिया में, हमन दुनिया से यारी क्या

कबीर के बाद हिन्दी में गजल की प्रवाहमान धारा गिरधर दास, प्यारेलाल शौकी, प्रेमघन, जयशंकर प्रसाद, लाला भगवान दीन, निराला, और आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री की रचनाओं में देखने को मिलती है. कालान्तर में यही परम्परा निराला से बढ़कर शम्भुनाथ शेष, बलवीर सिंह रंग, रूपनारायण त्रिपाठी, नीरज, त्रिलोचन शास्त्री, तथा शमशेर बहादुर सिंह के रचना-संसार से होती हुई दुष्यन्त कुमार तक आती है. लेकिन इस परम्परा के बावजूद सच्चाई यह है कि हिन्दी में गजल का विस्मयकारी विस्फोट दुष्यन्त कुमार तथा उनके कुछ समकालीन तथा परवर्ती रचनाकारों में देखने को मिलता है. इसी के प्रभाव से भोजपुरी में गजल लिखने के प्रति रचनाकारों की रुचि प्रेरित हुई. ऐसा कुछ हिन्दी वालों का मानना है जो सम्भवतः लोक-भाषाओं की सृजनात्मकता से परिचित नहीं हैं. भोजपुरी भाषा और साहित्य के गम्भीर अध्येता इससे भिन्न मत रखते हैं और उनका मानना है की भोजपुरी गजल का इतिहास वैसा नया नहीं है जैसा कुछ लोग स्थापित करते है. वास्तविकता यह है कि जिस समय भारतेन्दु हिन्दी में (हिन्दी-उर्दू मिश्रित) गजलें लिख रहे थे, लगभग उन्हीं के समकालीन भोजपुरी के कवि तेग अली तेग गजल के छन्द विधान को अपनाकर प्रभावी रचनायें प्रस्तुत कर रहे थे. उनकी कविताओं का संग्रह 'बदमाश दर्पण' इसका प्रमाण है. लेकिन, यह भी सच है कि तेग अली के समकालीन और उनके परवर्ती किसी अन्य भोजपुरी गजलकार को ढूँढ़ना मुश्किल है.

समकालीन भोजपुरी कविता में सर्वश्री पाण्डेय कपिल तथा जगन्नाथ दो ऐसे नाम हैं जिनकी कदकाठी, भोजपुरी ही नहीं, हिन्दी के किसी बड़े कवि के समानान्तर देखी जा सकती है. इनकी गजलों में गजल का परम्परागत कथ्य और आधुनिकता से लैस समकालीन एवं समसामयिक बोध विस्तार सूक्ष्मता से सुगुम्फित मिलते हैं. इसलिये मेरा मानना है कि ये दोनों प्रयोगधर्मी सृजनशील कवि संयुक्त रुप से आधुनिक भोजपुरी गजल के प्रथम पुरुष हैं, जिनका विकास डा. अशोक द्विवेदी की पीढ़ी के कवियों में देखा-परखा जा सकता है. भोजपुरी गजल साहित्य में मनोज 'भावुक' इसी परम्परा की नवध कड़ी हैं.
मनोज की गजलों की वस्तुचेतना को निजत्व से उपजी सामाजिकता के विस्तार के रुप में देखा जा सकता है. उनकी गजलों में आजादी के बाद मोह-भंग से उपजी भारतीय जनजीवन की त्रासदी और छटपटाहट को ही प्रमुखता से शब्दायित किया गया है. आजादी के बाद जो सत्ता का हस्तान्तरण हुआ, उससे केवल शासन-सत्ता का ही परिवर्तन नहीं हुआ वरन आम आदमी लोकतंत्र के तंत्र में ऐसा उलझा कि उसके पास सपनों से भरा जो एक कोमल अबोध मन था, वह चालाकियों, चाटुकारिता, छल-छद्म में बदल गया. मनुष्य के रुप में, जो अत्यन्त बहुमूल्य धरोहरें थीं, सम्बन्धों की सहलाव भरी उष्मा थी, वह सब की सब खो गई. गांव, घर, सीवान, सबने कुछ न कुछ खोया ही और यह खोना ही आजादी का हासिल बनता गया. शहर का कंकरीलापन पसरता हुआ उसके मन में समाता गया. 'तस्वीर जिन्दगी के' संग्रह की पहली गजल ही गहरी टीस और छटपटाहट को एक प्रश्नाकुलता के साथ प्रस्तुत करती है.

बचपन के हमरा याद के दरपन कहाँ गईल
माई रे, अपना घर के ऊ आँगन कहाँ गईल

आँगन को दर्पण कहना, शायद पहली बार कविता में प्रयुक्त हुआ है. झील का दर्पण, आँखों का दर्पण पहले भी प्रयुक्त हुआ है, लेकिन आँगन का ऐसा दर्पण बन जाना, जिसमें यादों के अक्स उभरते हों, पहली बार प्रयुक्त हुआ है. साथ ही साथ यह उस बदलाव की ओर भी इशारा करता है, जहाँ बढ़ता शहरातीपन, उसमें उगते सिमेन्ट और कंक्रीट के जंगल निरन्तर पसरते चले जा रहे हैं. इस जंगल के विस्तार में आँगन का खोना, अधुनातन भवन निर्माण और वास्तु को खारिज करता है. गाँव खो गये हैं, उसकी बगीचियाँ उजड़ गयी हैं, वहाँ का सहज आनन्द-उल्लास खो गया है. आत्मीयता से लबालब स्नेह की सरितायें सूख गयी हैं. तभी तो कवि लिखने को विवश होता है -

खूशबू-भरल सनेह के उपवन कहाँ गइल
भउजी हो तोहरा गाँव के मधुबन कहाँ गइल (गजल संख्या ‍१)

आपसदारियाँ खत्म हो गयी हैं, राजनीति, धर्म, और जातीय विभाजनों ने ऐसी दरारें पैदा कर दी हैं जिन्हें लोग प्रयत्न करके ढँक तो लेते हैं, लेकिन नष्ट होने से बचाये भी रखना चाहते हैं. आवरणहीन खुल कर मिलने-जुलने की रवायतें गुम हो गयी हैं और उसका परिणाम सामने है -

खुलके मिले-जुले के लकम अब त ना रहल
विश्वास, नेह, प्यार भरल मन कहाँ गइल. (गजल संख्या ‍१)

यही तो त्रासदी है विगत छप्पन वर्षों की 'सुराज यात्रा' की. लोगों का कद बढ़ा है लेकिन ऋणात्मक जीवन मूल्यों की दिशा में. शोषण की प्रवृत्ति ने उन्हें बरगद बना दिया है, जो उपरी तौर पर तो छाया देता है लेकिन अपने नीचे उगते किसी और बिरवे को वृक्ष बनने से रोकता है. इतना ही नहीं, वरन् आसपास के पेड़ों के हिस्से की खुराक और उनकी जीवनी-शक्ति भी छीन लेता है -

जे भी बा, बाटे बनल बरगद इहाँ
पास के सब पेड़ के रस चूस के (गजल संख्या ‍१)

इसी का परिणाम है कि कुछ लोग अपने मूल्यों, आदर्शों और मानवीय सरोकारों के लिये आज भी अशरीरी होकर जीवित हैं. स्मृतियों में कौंधते हैं. जबकि तमाम सारे दूसरे लोग दैहिक वजूद रखते हुये भी स्मृतियों के विलोपन में चले गये है, यह स्मृतियों का विलोपन ही तो मृत्यु है -

बहुत बा लोग जे मरलो के बाद जीयत बा
बहुत बा लोग जे जियते में, यार, मर जाला

एक अच्छी कविता जितना कहती है, उससे कहीं अधिक गोपन रखकर संकेतों और व्यञ्जनों से अपने अर्थ-आशय को व्याख्यायित करती है. कविता की यह गोपन प्रक्रिया ही उसके आयाम को विस्तार देती है. मनोज 'भावुक' की रचनाशीलता, कविता के इस स्वभाव की कसौटी पर खरी उतरती है.

एक पोख्ता इमारत के लिये जरूरी है कि उसकी नींव ठोस हो, लेकिन यहाँ तो नींव ही रेत में रखी गयी है. लोग नदी में कागज की नाव पर बैठे हैं और अपने को सुरक्षित अनुभव करने का भ्रम पाले हुये हैं. यह आश्वस्ति कितनी भयावह है ! कागज की नाव की नियति है डूबना. योजनायें जो फाइलों में दब के रह गयी हैं, उनका पानी के गहरे तल में डूबना सुनिश्चित है. आम आदमी समकालीन समय के कैसे दबाव में पिस रहा है, इस त्रासदी को कवि ने बड़ी खूबसूरती से प्रस्तुत करते हुये लिखा है -

कान्हा प अपना बोझ उठवलो के बावजूद
हरदम रहल देवाल छते के दबाव में(गजल संख्या ५)

यह दीवार कौन है भला - मेहनतकश आम आदमी. और छत हैं वे लोग जिनका रिश्ता जमीन से नहीं है लेकिन दीवार पर बोझ की तरह लदे हुये हैं.

गाँवों की जानी-पहचानी छवि बदल गयी है. उसका अस्तित्व ही खतरे में है. शहर अपनी सभी, सभ्य मुखौटों के भीतर छिपी, कुररूपताओं के साथ उसकी आत्मा को निगल गया है. वैसे लफ्फाजी भरे भाषणों में भारत अब भी गाँवों का ही देश है. देश का सत्तर प्रतिशत हिस्सा गाँव है लेकिन असलियत इसे नकारती है -

कहहीं के बाटे देश ई गाँवन के हऽ, मगर
खोजलो पर गाँव ना मिली अब कवनो भाव में (गजल संख्या ‍ ५)

यह बात ध्यान देने की है कि कवि आधुनिकता का विरोधी नहीं है बल्कि वह आधुनिकता की खाल में इस खतरनाक आदमखोर यांत्रिकता का विरोध करता है जो आदमी को मशीन में तबदील करती जा रही है. मनुष्य की कोमल मानवीय संवेदनाओं का क्षरण कर रही है, उसे मार रही है.

लागत बा उ मशीन के साथे भईल मशीन
तब ही तऽ यार आज ले लवटल ना गाँव में. (गजल संख्या ५)

हिन्दी नवगीत में 'घर' को प्रेम से भरी संवेदनशील ईकाई के रूप में चित्रित किया गया है. 'तस्वीर जिन्दगी के' की गजलों में ऐसे अशआर मिलते हैं जो घर की संवेदना को, पारिवारिक रिश्तों की गर्माहट को व्यञ्जना देते हैं -

होखे खपरैल भा महल होखे
नेह बाटे तबे ऊ घर बाटे(गजल संख्या ५०)

परे जब डाँट बाबू के छिपीं माई के कोरा में
अजी, ई बात बचपन के मधुर संगीत लागेला (गजल संख्या ८)

आधुनिकता ने मनुष्य के स्वभाव की ईमानदारी और सहजता को छीन लिया है. परस्पर संबंधों में एक कुरूप औपचारिकता का प्रवेश हो गया है. इसी स्थिति की ओर संकेत करते हुये उर्दू के एक शायर ने लिखा है -

दिल मिले या न मिले,हाथ मिलाते रहिये.

'भावुक' का भी एक शेर है -

प्रीत के रीत गजब रउआ निभावत बानी
घात मन में बा, मगर हाथ मिलावत बानी(गजल संख्या १०)

कविता क्या है? गीत क्या है? इसे लोगों ने तरह-तरह से परिभाषित किया है. लेकिन गीत की जो केन्द्रीय शर्त है वह है सौन्दर्य का आन्तरिक अनुगायन. फिर चाहे वह सुखद हो अथवा विषादपूर्ण. गीत के इसी स्वरूप को परिभाषित करते हुये कवि ने एक शेर में लिखा है -

रूप भा रंग के हम छंद में बान्हत बान्हत
साँस पर साध के अब गीत कढ़ावत बानी (गजल संख्या १०)

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कई वर्षों पूर्व वाराणसी के एक कार्यक्रम में कविता की चर्चा करते हुए कहा था कि कविता रोटी नहीं देगी, कपड़ा नहीं देगी, मकान नहीं देगी - फिर उसका हमारे लिये क्या उपयोग हो सकता है? उन्होंने इन सवालों का उत्तर देते हुये कहा था कि यह ठीक है कि कविता हमें किसी तरह का भौतिक सुख नहीं दे सकती लेकिन वह उससे भी बड़ा और महत्वपूर्ण कार्य करती है - एक बेहतर इन्सान बनाने का काम. जीवन में वह सहचर भाव से हमारे साथ हमेशा रहेगी, संवेदनाओं को निरन्तर सम्प‍‍न्न बनाती हुई. कविता में निहित होती है सृजन की आकांक्षा. वह जीवन को कोमल, सहज तथा सुखद बनाये रखने का प्रयास करती है -

आज ले दे न सकल पेट के रोटी कविता
तबहूं हम गीत-गजल रोज बनावत बानी
पेट में आग तऽ सुनगल रहत बा ए 'भावुक'
खुद के लवना के तरे रोज जरावत बानी(गजल संख्या १०)

यह कवि का लवना, जलावन की लकड़ी, की तरह खुद को जलाना ही तो कविता के सृजन कि प्रक्रिया का हिस्सा है. इसलिये कि कल किसी की आत्मा भूखी न रहे.

गजल की विशेषता है कि उसके शेरों के अर्थ इकहरे न होकर बहुआयामी, बहुकोणीय होते हैं. सामान्य मानवीय प्रेम के धरातल और आध्यात्मिक उर्ध्वगमन की प्रक्रिया उसमें एक साथ घुल-मिल जाती है -

देखाई आज ले हमरा ना ऊ पड़ल कबहूँ
हिया में सांस में धड़कन में जे समाइल बानि
कलके आईं कबो ख्वाब से हकीकत में
परान रउरे भरोसा प अब टंगाईल बा(गजल संख्या ११)

अब ठीक इससे उलट बात एक शेर में देखें -

कहिये से जे बा बइठल, भीतर समा के हमरा
हहरत हिया के धड़कन ओकरे सुनात नइखे(गजल संख्या १२)

परिवर्तनशीलता प्रगति का पर्याय है. समय के अनुरूप अपने को ढालना मानवीय विवेक का परिचायक है. लेकिन अंधे के हाथ में अपने आप को सौंप देना विवेक नहीं आत्महत्या है. बदलाव को ठीक-ठीक समझे बगैर लोग इसके ताल पर थिरकने लगते हैं. यह तर्कसम्मत नहीं है. आधुनिकता किंवा पाश्चात्य संस्कृति की चकाचौंध से खींचकर उसकी ओर भागना एक अंधी दौड़ है जो जड़ों से विच्छिन्न करती है. कवि इसी ओर संकेत करते हुये लिखता है -

बदलाव के उठल बा अईसन ना तेज आन्ही
कहवाँ ई गोड़ जाता, कुछुओ बुझात नइखे(गजल संख्या १२)

गजल की एक विशेषता यह भी है कि उसके शेरों में एक उद्धरणीयता होती है और वे व्यापक जीवन प्रसंगों में हमारे काम उसी तरह आते हैं जैसे कबीर-रहीम के दोहे. इस संग्रह में भी ऐसे कई शेर हैं जो इस कसौटी पर खरे उतरते हैं. कुछ शेर बतौर बानगी देखें -

जिन्दगी सवाल हऽ, जिन्दगी जवाब हऽ
जोड़ आ घटाव हऽ, साँस के हिसाब हऽ
धूप चल गइल त का, रूप ढल गइल त का
बूढ़ भइल आदमी, अनुभवी किताब हऽ(गजल संख्या १३)

संवेदना के लाश प कुर्सी के गोड़ बा
मालूम ना, ई लोग के कइसे सहात बा(गजल संख्या १४)

आईं अबहूँ रहे के मिल-जुल के
जिन्दगी मे आउर धइल का बा(गजल संख्या १६)

सुख के एहसास नइखे हो पावत
सुख के सामान सब भरल बाटे(गजल संख्या २२)

यह देखकर सुखद लगता है कि मनोज 'भावुक' ने परम्परा से सिर्फ शिल्प ही नहीं लिया है, वरन् विषयवस्तु भी वहाँ से ग्रहण की है. लेकिन कुछ इस तरह कि वह उनकी मौलिकता को आहत न करे. यह परम्परा तुलसी में भी रही है और अन्य कवियों में भी. कबीर की एक उक्ति -
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोयजो मुख देखूं आपना, मुझ सा बुरा न कोय
को किस खूबसूरती से अपने शब्दों में ढालकर वे कहते हैं -

छोड़ दिहले हँसल ऊ अनका पर
जब से खुद पर नजर पड़ल बाटे(गजल संख्या २२)

इसी तरह नायिका के सौन्दर्य का चित्रण करने वाला बिहारी का एक दोहा है -
लिखन बैठि जाकि सभी गहि गहि गरब गरूरभये न केते जगत में चतुर चितेरे कूर
इसी सन्दर्भ में 'भावुक' का शेर है -

बन्हाइल कहाँ ऊ कबो छन्द में
जे हमरा के हरदम लुभावत रहल(गजल संख्या २७)

रहीम का एक दोहा है -

रहिमन देखि बड़ेन को लघु न दीजिये डारिजहाँ काम आवे सूई, कहा करे तलवारि

इसी आशय को व्यंजित करता 'भावुक' का एक शेर है -

कबो कबो होला अइसन कि छोटको कामे आवेला
देखीं ना सागर, इनार में, इनरे प्यास बुझावेला(गजल संख्या ३९)

पूंजीतंत्र को लेकर पूरब में एक लोक कहावत है - "रेलिया ना बैरी, जहजिया ना बैरी, पिया पइसवा बैरी ना, देसवा देसवा भरमावे इहे पइसवा बैरी ना. "

ध्यातव्य है कि यहाँ नायिका न रेल का विरोध करती है, न जहाज का, जो आधुनिक जीवन के लिये जरूरी हैं. वह सिर्फ पैसे पर, पूंजीतंत्र पर चोट करती है. 'तस्वीर जिन्दगी के' का रचनाकार भी पूंजीतंत्र पर चोट करते हुये कहता है -

पटना से दिल्ली, दिल्ली से बम्बे, बम्बे से पूना
'भावुक' हो आउर कुछुओ ना पइसे नाच नचावेला(गजल संख्या ३९)

यह पूंजीतंत्र ही तो ऐसे दृश्य, ऐसी स्थितियाँ प्रस्तुत करता है -

चीन्ही कइसे केहू केसौ चेहरा एक चेहरा में(गजल संख्या ४१)

गाय कसाई के घर मेंकुतिया ए.सी. कमरा में(गजल संख्या ४१)

'तस्वीर जिन्दगी के' की गजलें व्यापक जीवन की तस्वीर प्रस्तुत करती हैं. इनमें जहां एक ओर निजत्व भरा गहरा राग बोध है, वहीं दूसरी ओर जीवन यथार्थ की बहुआयामी छवि भी. इस संग्रह की गजलों को भोजपुरी-गजल यात्रा के विकास की एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में जाँचा-परखा जाना चाहिये. एक बात विशेष रूप से ध्यान देने की है कि जीवन यथार्थ पर भरपूर दृष्टि होते हुये भी कवि में हताशा का भाव नहीं है. कई गजलों में यह गहरा आश्वस्ति भरा आशावाद झलकता है, जो इस रचनाकार के सृजनकर्म को प्रासंगिक बनाता है. गजल संख्या ४०, ४४ इसके अर्थवान उद्धरण है.

इन गजलों को पढ़ते हुये एक अन्य पहलू ने , जिसने अपनी ओर ध्यान आकर्षित किया, वह यह कि उर्दू में गजल का हर एक शेर एक स्वतंत्र इकाई की तरह होता है. हिन्दी ने उसे एक अन्विति में पिरोया. इस संग्रह की गजलें भी उसका निर्वहन करती हैं.

'माँ' को लेकर विश्व में अनेक कवितायें लिखी गयी हैं. मनीषियों-चिन्तकों ने यह स्वीकार किया है कि इस जीवन में 'माँ' ईश्वर की प्रतिनिधि ही नहीं वरन पर्याय है. एक विचारक ने कहा कि चुँकि ईश्वर सबके पास नहीं पँहुच सकता, इसलिये उसने 'माँ' की रचना की. इस संग्रह में भी 'माँ' पर एक पूरी गजल है. इसमें 'माँ' अपनी सम्पूर्णता में अभिव्यक्त हुयी है और वह तो चरम है जब कवि यह लिखता है -

'मनोज' हमरा हिया में हरदम
खुदा के जइसन रहेले माई(गजल संख्या ४७)

मुझे विश्वास है कि व्यापक भोजपुरी जगत में ही नहीं, हिन्दी जगत में भी इस संग्रह को पढ़ा, गुना और सराहा जायेगा. इस संग्रह की गजलों में गजल का छान्दिक अनुशासन भी है और कविता तथा अन्तर्निहित संगीत भी.

प्रस्तोता या भूमिका लेखक की सीमा यही है कि वह प्रस्तुत कर के अपने को अलग कर ले, नाटक के सूत्रधार की तरह. मैं उसी प्रक्रिया में इस संग्रह की गजलों और उसके सुधी पाठकों से अपने को अलग करता हूं, यह देखने के लिये कि अपनी लहरों, मछलियों तथा तल की गहराई से ये किन्हें अपने में उतर कर तैरने, डुबकी लगाने के लिये आमंत्रित करती हैं और कौन लोग सिर्फ किनारे बैठ कर सब कुछ पाने की लालसा पालते हैं. इन गजलों में भोजपुरी माटी की गंध है और कविता की मिठास भरी सुगन्ध भी. कविता का एक काम यह भी है - माटी के संस्कारों को उद्दीप्त करना, लोगों को उससे जोड़ना. इनमें यह सब है और सबसे प्रिय है भोजपुरी मानुख की संवेदना से लबालब, निष्कलुष मन, जो सबमें अपनत्व बाँटना चाहता है, जीवन को सौन्दर्यमण्डित करना चाहता है. ये बोलती बतियाती गजले हैं, आप इनका स्वर, इनका कोलाहल, क्रन्दन, हास-उल्लास सुन-देख रहे हैं न? इनके साथ-साथ जीवन की यात्रा बेहतर भविष्य की खोज में तब्दील हो सकती है.

शुभेस्तु पन्थानः.

"हरसिंगार", ब/एम-४८, नवीन नगर, मुरादाबाद ‍ २४४००१