तस्वीर जिन्दगी के

Home | Manoj Bhawuk - Introduction | Bhawuk's Rachna Sansar Tasveer Jindagi Ke Collection of Gazals written by Manoj Bhawuk. This was the First Bhojpuri Book to be awarded by Bharatiya Bhasha Parishad. -------------------------------------------------------------------------------- Manoj Bhawuk gets Bhartiya Bhasha Parishad Award from Gulzar and girija devi.

Friday, January 12, 2007

युवा-मन की प्रतिक्रिया में उभरती जिन्दगी की तस्वीर

भोजपुरी एक बहुत बडे़ एवं विस्तृत भारतीय समाज की भाषा है। यह जितनी बाहर की भाषा है, उससे कहीं अधिक भीतर की, घर की, घर-बार की। यही वजह है कि घर भोजपुरी कविता का अपना स्वाभाविक विषय ह।गोरख् पाण्डेय, प्रकाश उदय, अशोक द्विवेदी, जगदीश पंथी- सबकी कविताओं में यह घर' है। घर विविध रिश्ते-नातों से बनता है। भोजपुरी कविता में जब भी घर' की बात चली है, ये रिश्ते-नातें किसी-न-किसी रूप में उचरने लगते हैं।इन रिश्तों के उच्चार में देखा जाता है कि जितनी मिठास होती है, प्रायः उतनी खटाँस भी। भोजपुरी कविता इस मिठास और खटाँस की स्वाभाविक अभिव्यक्ति की कविता है। मिठास में तो मिठास होती ही है, खटाँस में भी प्रायः रिश्तों की गर्माहट और सक्रियता ही प्रकट होती है। मनोज भावुक' की गजलों में भी, अच्छी बात है यहघर' आता है, घर का आँगन आता है, रिश्तों के स्पष्ट उच्चार के साथ।ये रिश्ते अपने स्वाभाविक ठेठपन में इनकी गजलों में उचरते हैं और उल्लेखनीय है कि स्मृति-सम्पन्न एवं पीड़ाभरी प्रश्नाकुलता के साथ -

माई रे, अपना घर के ऊ आँगन कहाँ गइल।
भउजी हो, तोहरा गाँव के मधुवन कहाँ गइल।' (गजल सं 1)

यहाँ माई रे' और भउजी हो' को देखा जाना अनिवार्य है।इस रे' और हो' में भोजपुरिया जीवन शैली और रिश्तों की पारस्परिकता एवं पारम्परिकता की गंध सुरक्षित है। कवि यहाँ अपने अतीत-व्यतीत होते समय-संदर् की सक्रियता, मिठास, सझियाँव एवं खुलेपन को पाना चाहता है।यह माई रे' इसलिए इनकी गजल में है कि यह वह माई है जो अपने बेटे की खुशी में ही अपनी खुशी तलाशती है।उसी की नींद सोती और उसी की जाग जगती है।इनकी गजलों में व्यतीत होते समय की एक संवेदनशील शिनाख्त है। कवि इस बात को लेकर चिंतित, विह्वल और भावुक हो उठता है कि घर के जिस आँगन में उसका बचपन गुजरा है, वह आँगन अब गायब हो गया है।यहाँ गौर करने की जरूरत है कि कवि यह महसूस करता है कि कमरें तो हैं, लोगबाग भी हैं, जिंदगी की एक अपनी रफ्तार भी है, पर नहीं है तो वह आँगन-जिसमें तमाम कमरों के दरवाजे खुला करते थे और तमाम गतिविधियां उसी से होकर संचालित होती थीं।यह आँगन अब मिट गया है तो इसके भी कुछ कारण हैं।ऐसा नहीं कि इनकी गजलों में उन कारणों की परख-पड़ताल नहीं है। ये कारण अलग-अलग गजलों में अलग-अलग ढंग से परखे-पहचाने गये हैं।

मनोज की गजलों में सपने बुनता हुआ और सपनों के टूटने से आहत-आक्रोशित होता हुआ एक युवा-मन भी दिखाई देता है।यह मन दुखी भी होता है और अपने दुखों को अपने में ही नहीं रखता, बल्कि गा-गाकर बाँटता भी है और अपने दुखों को युवासुलभ दार्शनिकता का जामा भी पहनाता है।यहाँ कहना चाहूंगा कि सपनों और दुखों का इनका संसार इकहरा है और हद तक सपाट भी।युवा-मन का सतरंगा इन्द्रधनुष यहाँ सजने से पहले ही बिखर जाता है।संभव है कि कवि कोई खास बात कहना चाहता हो।वह प्रतिकूलताओं में फँसे युवा-मन की कसमसाहट को प्रकट करना चाहता हो।वह कहना चाहता हो कि एक स्वप्नशील-कल्पनाशील मन के लिए दायरों की कमी है।कवि के मन में, यह सच है कि ये सारे सवाल उथल-पुथल मचाये हुए हैं और वह स्वयं इसे महसूस करता है कि जो मन में शोर मचाये हुऐ हैं, वे अपने उसी वजन पर प्रकट नहीं हो पा रहे हैं।कवि अपनी बेचैनी और रचना-प्रक्रिया पर यहाँ टिप्पणी करते हुए बात स्पष्ट करता है-

जे राग मन में बाटे, सुर पर सधात नइखे
काहे दो बात मन के, यारे, कहात नइखे।' (गजल सं १२)

भारतीय जन-जीवन में व्याप्त निराशा भी इनकी गजलों का मुख्य विषय है।अशोकद्विवेदी, मिथिलेश गहमरी आदि की गजलों में भी यह निराशा आई हुई है। इस निराशा को अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य में भी देखा जा सकता है।लेकिन मनोज की गजल में गहरी निराशा के बावजूद उम्मीद का एक ऐसा दीया' भी है, जो अपनी लय में तो नहीं, पर जलता है, भुकभुकाते हुए ही सही। कवि कहता है कि यह मन का दीया' है। कवि मन की अपराजेयता को अपने ढंग से देखता है -

मन बहुत लरियाह ह, सोचे ना कवनो बात के
ई त बाते-बात पर बारे दिया उम्मीद के।' (गजल सं १८)


ई अलग बात बा आज ले सीप में, हमरा हर बेर भावुक' हो बालू मिलल
पर इहे सोच के अभियो डूबल हईं, एक दिन हम त मोती निकलबे करब' (गजल सं ४०)

भारतीय शासक वर्ग के अमन-विरोधी, जनविरोधी चरित्र की पड़ताल भी इनकी गजलों में है।

लाश के ढेर पर जे बनत बाटे घर, ओके मंदिर कहीं चाहे मस्जिद कहीं
देवता दू घरी ना ठहरिहें उहॉं, ऊ पिशाचन के डेरा कहइबे करी' (गजल सं ३७)

कवि यह महसूस करता है कि यहाँ जो मार-काट है, गरीबी है, बेरोजगारी है, लूट-खसोट है,उम्मीद का टूटना है, रिश्ते-नातों में घिसाव है, अपने ही परिवेश में परिचय-पहचान विहिन होते जाना है- इन सबों के लिए प्रथमतह्य सत्ता के केन्द्र में बैठे हुए लोग जिम्मेवार हैं।आम आदमी अब अपने को अकेला महसूस कर रहा है। गजल जो कोई आम आदमी के अकेलेपन की पीड़ा, स्थिति और अवसाद से सम्बन्ध बनाए, अकेल आदमी की बुदबुदाहट को सुने तो यह उसकी संवेदनशीलता का एक अहम पक्ष है। यहाँ यह देखने की बात है कि मनोज अपनी गजल को आम आदमी की झाँझर मड़इया' जो 'फूस' की है, में पूस की आती हुई धूप तक ले जाते हैं।पूस की धूप बहुत प्यारी होती है, लेकिन पूस की रात? इसको समझने के लिए प्रेमचन्द की कहानी पूस की रात' को पढ़ना अनिवार्य है। इस कष्टकर रात के दुखद अहसास को कवि ने विषय के रूप में नहीं अपनाया है, लेकिन यह अहसास इस गजल में आए बिना नहीं रहता। यह गरीबी का एक स्थिति-चित्र है - व्यंग्यात्मक-

ना रहित झाँझर मड़इया फूस के
घर में आइत धूप कइसे पूस के।' (गजल सं ३)

मनोज की गजलों में एक उल्लसित युवा-मन भी है सदिच्छाओं से भरा हुआ। आत्म-संवाद भी है। युवा-मन का विचलन, उसकी आशंकायें-आकांक्षायें एवं बेतरतीबियाँ भी कम नहीं हैं।कवि का वह मन भी है जो प्रेम करता है, कसमें खाता है, प्रतिज्ञा करता है, बहकता है, एक बात की बार-बार रट लगाता है। युवा सुलभ रोमान भी इनकी गजलों में शुमार है।

दरियाव उम्र के अब भावुक' उफान पर बा
हमरा से बान्ह एह पर बन्हले बन्हात नइखे'(गजल सं १२)

मनोज भावुक के गजल-संग्रह तस्वीर जिंदगी के' की गजलों में भारतीय समय, समाज, राजनीति एवं संस्कृति पर एक युवा-मन की प्रतिक्रियाए संकलित हैं। गजल के क्षेत्र में ये और नये-नये प्रयोगों के साथ आएँगे, पाठक समुदाय इस लिहाज से इनको निहार रहा है। ये गजल के सुर-ताल को नई ऊँचाई देंगे, ऐसा विश्वास बन रहा है।

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तस्वीर जिन्दगी के (भोजपुरी ग़ज़ल-संग्रह), कवि -मनोज 'भावुक'
प्रथम संस्कारण २००४, प्रकाशक - भोजपुरी संस्थान, पटना,
मूल्य - साठ रूपया, कुल पृष्ठ ११०
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डा. बलभद्र
प्रवक्ता, हिन्दी
बलदेव पीजी कालेज बड़ागाँव,
वाराणसी (उत्तर प्रदेश)
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2 Comments:

  • At 1:18 AM, Blogger Pratik Pandey said…

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  • At 7:18 PM, Blogger ePandit said…

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    श्रीश शर्मा 'ई-पंडित'

     

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